अक्सर ऐसी खबरें आती हैं, जिनमें किसी अभ्यर्थी ने फर्जी प्रमाणपत्रों के आधार पर नौकरी हासिल कर ली। मगर संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी जैसी संस्था आमतौर पर इस तरह के आरोपों से बची रही है। माना जाता रहा है कि यूपीएससी की किसी परीक्षा को पास करने के बाद नियुक्ति के लिए चुने गए अभ्यर्थी के प्रमाणपत्रों की गहन जांच होती है।
मगर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चुनी गई एक अधिकारी पूजा खेडकर के पद के दुरुपयोग के मामले में और उसके बाद जैसी खबरें आ रही हैं, उससे यही लगता है कि संघ लोक सेवा आयोग जैसे उच्च स्तरीय संस्थान में भी किसी उम्मीदवार के प्रमाणपत्रों की जांच को लेकर लापरवाही या उदासीनता बरती जाती है।
गौरतलब है कि पुणे में प्रशिक्षु आइएएस अधिकारी पूजा खेडकर यूपीएएससी की परीक्षा में चुने जाने के लिए खुद को शारीरिक रूप से दिव्यांग और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय का बताने के लिए फर्जी प्रमाणपत्र पेश करने के आरोपों का सामना कर रही हैं। उन पर पुणे में तैनाती के दौरान विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करने का भी आरोप है।
हैरानी की बात यह है कि पूजा खेडकर का मामला सुर्खियों में आने के बाद अब भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के कुछ अन्य अधिकारियों के बारे में भी यह दावा किया गया है कि उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लाभ उठाने के मकसद से फर्जी प्रमाणपत्रों का उपयोग किया है।
सवाल है कि जब कोई अभ्यर्थी यूपीएससी की परीक्षाओं में सभी स्तर को पार करके चुन लिया जाता है, तब उसके बाद नियुक्ति के पहले उसके प्रमाणपत्रों की जांच को लेकर कैसी व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति हेराफेरी करके अपने लिए प्रमाणपत्र बनवा लेता है, जिसे यूपीएससी भी अपनी जांच में पकड़ नहीं पाता। अब संभव है कि संदिग्ध अधिकारियों के प्रमाणपत्रों की फिर से गहन जांच हो।
लेकिन अगर फर्जीवाड़े के आरोप सही पाए गए तो जिस यूपीएससी के समूचे तंत्र को पूरी तरह पाक-साफ और चौकस बताया जाता है, वहां अभ्यर्थियों के प्रमाणपत्रों की जांच में इस कदर लापरवाही बरतने को लेकर कैसी धारणा बनेगी? क्या यह देश के सबसे विश्वसनीय माने जाने वाले संस्थान की साख का सवाल नहीं है?