अठारहवीं लोकसभा की औपचारिक शुरुआत के साथ उम्मीद यही की जाएगी कि नए संसद सदस्यों ने चुनावों के दौरान जनता के सामने जो वादे किए थे, उन्हें पूरा करने और देश के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने के लिए वे अपनी ओर से सब कुछ करेंगे। सोमवार को पहले सत्र में नए सांसदों के शपथ लेने और बुधवार को नए लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के बाद गुरुवार को राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करेंगी। इसके बाद तीन जुलाई तक चलने वाले इस सत्र में फिलहाल परीक्षा में नकल के रोग, धांधली और सुर्खियों में आए कई जरूरी मुद्दों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव के आसार बन रहे हैं। जाहिर है, संसद में जनता से जुड़े मुद्दों पर बातचीत या बहस एक स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा को ही आगे बढ़ाएगी, मगर साथ ही यह अपेक्षा होगी कि ऐसी बहसें किसी ऐसे बेमानी टकराव का रुख न अख्तियार करे, जिसमें मुख्य सवाल शोर में गुम हो जाएं और समस्याओं का कोई ठोस हल न निकले।
दरअसल, पिछली लोकसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव जिस स्तर तक चला, उसमें ऐसे अवसर कम आए, जिसमें जनहित के मुद्दों पर सार्थक बहस हो और किसी मसले पर सामने आए हल में सबकी भागीदारी दिखे। ऐसी शिकायतें कई बार उभरीं जिसमें असहमति के स्वर तीखे होने के बाद विपक्ष ने सदन का बहिर्गमन किया और कई मुद्दों और विधेयकों पर पर्याप्त बहस नहीं हो सकी।
इस बार संख्या बल की कसौटी पर विपक्ष बेहतर स्थिति में है और दोनों पक्षों का जिस तरह का ढांचा खड़ा हुआ है, उसमें स्वाभाविक ही पिछली लोकसभा के मुकाबले ज्यादा संतुलन दिखने की संभावना है। मगर जरूरी यह है कि किसी मुद्दे पर असहमति ऐसे टकराव में न तब्दील हो जिसमें उससे जुड़े अलग-अलग पहलू पर चर्चा न हो सके। यह छिपा नहीं है कि किसी सदन में जिन मसलों पर सदस्यों के बीच व्यापक बहस की जरूरत होती है, वह कई बार इसलिए संभव नहीं हो पाती है कि हंगामे के नतीजे में सदन को बार-बार स्थगित किया जाता है।
सवाल है कि जनता ने जिन्हें अपना प्रतिनिधि चुन कर संसद में भेजा है, अगर वे वहां किसी भी वजह से जनहित के मुद्दों पर बात नहीं कर पाते हैं तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी बनती है। लोकतंत्र का बुनियादी मूल्य यही है कि विधायिका जनता का प्रतिनिधित्व करती है और वहां उसके व्यापक हित में ही काम होना चाहिए। यह तभी संभव है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष संसद में अपनी-अपनी जवाबदेही को गंभीरता से लें। महज असहमति की वजह से एक-दूसरे को खारिज करके देश के आम लोगों का भला नहीं किया जा सकता।
निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर कोई समस्या खड़ी होती है, तो उसका हल निकालना सरकार की जिम्मेदारी है और विपक्ष का यह दायित्व है कि वह इस मसले पर अपना वाजिब लोकतांत्रिक हस्तक्षेप करे। इस क्रम में सदन अगर हंगामे का अखाड़ा बन जाता है तो इससे सिर्फ सदन के समय और उस पर होने वाले खर्च की बर्बादी ही होगी। हंगामे और इसकी वजह से सत्र स्थगित किए जाने से न जाने कितने कार्य दिवसों का नुकसान होता है और जनहित के कितने स्वर दब कर रह जाते हैं। ऐसे में उम्मीद होगी कि पिछली घटनाओं से सबक लेकर नई लोकसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों अपनी जवाबदेही समझेंगे कि संसद जनता का व्यापक हित सुनिश्चित किए जाने और देश के लोकतंत्र को जीवन देने के रूप में अपनी जगह मजबूत करेगी।