यूरोपीय संघ के चुनाव में इस बार बड़ी उलट-फेर देखने को मिली है। दक्षिणपंथी रुझान वाले दलों को शानदार कामयाबी मिली है। इसे देखते हुए जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों के सत्ताधारी दलों की घबराहट बढ़ गई है। हार की आशंका से फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने तो राष्ट्रीय संसद भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी है। सत्ताईस सदस्य देशों वाले यूरोपीय संघ में जर्मनी सबसे बड़ा देश है। वहां की ‘अल्टरनेटिव फार जर्मनी’ पार्टी मजबूत होकर उभरी है। हालांकि उसके कई शीर्ष उम्मीदवारों के नाम घोटालों में शामिल थे, मगर उसके बावजूद पार्टी का मत प्रतिशत बढ़ा। पार्टी ने 2019 में ग्यारह फीसद मत हासिल किए थे, जो इस बार बढ़ कर साढ़े सोलह फीसद हो गए। वहीं जर्मनी के सत्तारूढ़ गठबंधन में तीन दलों का संयुक्त मत मुश्किल से तीस फीसद से ऊपर रहा। इस तरह ‘अल्टरनेटिव फार जर्मनी’ ने देश के चांसलर ओलाफ शोल्ज की ‘सोशल डेमोक्रेट्स’ पार्टी को मात देने के लिए पर्याप्त सीटें जुटा ली हैं। जर्मनी में दक्षिणपंथ के इस उभार को कुछ लोग हिटलर के नाजी उभार के रूप में देख रहे हैं।
यूरोपीय संघ यूरोप के सत्ताईस देशों का संगठन है, जिसकी संसद के लिए करीब चालीस करोड़ लोग मतदान करते हैं। यही संसद यूरोपीय देशों की आर्थिक विकास, वाणिज्य-व्यापार, राजनयिक, आप्रवासन आदि से जुड़ी नीतियां तय करती है। इसलिए दुनिया के तमाम देशों की नजर इसके चुनाव पर रहती है। यूरोपीय संघ में दक्षिणपंथी रुझान वाले दलों का दबदबा बढ़ने से वाणिज्य-व्यापार, आप्रवासन आदि को लेकर कुछ देशों की चिंताएं बढ़ गई हैं। दक्षिणपंथी रुझान वाली सरकारों में देखा गया है कि वे राष्ट्रवादी नीतियों पर अधिक जोर देती हैं। यूरोपीय संघ आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वान डेर लेन की पार्टी ‘क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स’ ने चुनावों से पहले ही दक्षिणपंथी रुझान के उभार को भांप लिया था और प्रवासन और जलवायु के मुद्दे पर और अधिक दक्षिणपंथी रुख अपना लिया था, जिसके कारण यूरोपीय संसद में उनकी पार्टी अब तक की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। भारत के लिए भी इसे इसलिए चिंता का विषय माना जा सकता है कि उन देशों में बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक रोजगार आदि के लिए जाते हैं।