भारत निर्वाचन आयोग ने इस चुनाव से सबक लिया है कि चुनाव प्रक्रिया को गर्मी शुरू होने से एक महीना पहले ही पूरा कर लिया जाना चाहिए। दरअसल, मतदान के आखिरी चरण में लू और गर्मी से बीमार होने के कारण तैंतीस मतदान कर्मियों की मौत हो गई। हैरानी है कि निर्वाचन आयोग को जो बात सामान्य बोध से समझ आ जानी चाहिए थी, वह मतदान कर्मियों की मौत के बाद समझ आई।
इसे लेकर शुरू से आशंका जताई जा रही थी कि मई के महीने में तेज गर्मी और लू के कारण लोगों की तबीयत खराब हो सकती है, मतदान में गिरावट आ सकती है, मगर निर्वाचन आयोग ने न केवल इतनी तेज गर्मी में मतदान की तारीखें रखीं, बल्कि उन्हें सात चरण में फैला कर बेवजह लंबा कर दिया। हर वर्ष गर्मी की वजह से लोगों के मरने के आंकड़े बढ़ रहे हैं, निर्वाचन आयोग उनसे अनजान नहीं माना जा सकता। फिर, सवाल है कि चुनाव को इतना लंबा खींचने का तुक क्या है।
निर्वाचन आयोग ने गर्मी से सबक तो ले लिया, पर उसके कामकाज को लेकर विपक्षी दलों ने जो सवाल उठाए, उनमें से भी कुछ को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इस चुनाव में जिस तरह खुल कर आदर्श आचार संहिता को ताक पर रखते हुए भाषण दिए गए, उन पर निर्वाचन आयोग अपेक्षित कार्रवाई नहीं कर सका। यह पहली बार था, जब निर्वाचन आयोग पर शंका जताते हुए राजनीतिक दलों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। निर्वाचन आयोग एक स्वायत्तशासी संस्था है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराएगा।
मगर इस बार खुद निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा किया गया। यहां तक कि मतदान के बाद मतों के आंकड़े जारी करने में भी आयोग ने काफी देर की और उसे लेकर कोई वाजिब तर्क न दे सका। इसे लेकर उसकी खूब आलोचना हुई। मतगणना तक पर संदेह जताया गया। यह इस संस्था की साख के लिए अच्छी बात नहीं कही जा सकती। इसलिए निर्वाचन आयोग को केवल गर्मी से नहीं, उन अन्य शिकायतों से भी सबक लेना चाहिए, जिनकी वजह से उसे किरकिरी झेलनी पड़ी।