भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक ढांचा है, जिसकी शक्ति निष्पक्ष चुनाव और जन-भागीदारी में निहित है। चुनाव आयोग इस व्यवस्था का आधार है, जो हर नागरिक के स्वतंत्र और स्वेच्छा से मतदान करने के अधिकार की रक्षा करता है। मगर इसकी कार्यप्रणाली पर ही अगर मतदाताओं को संशय होने लगे तो स्पष्टता की मांग स्वाभाविक है। बिहार में कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं और निर्वाचन आयोग ने वहां मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण शुरू किया है, जिसे लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।

सबसे बड़ा विवाद आयोग की ओर से तय किए गए नागरिकता के प्रमाण पत्रों को लेकर है, जिनमें आधार और मतदाता पहचान पत्र मान्य नहीं बताया गया। इससे मतदाताओं में असंतोष पैदा हुआ। विपक्षी दल भी चुनाव आयोग के इस कदम का विरोध कर रहे हैं। विवाद इतना बढ़ा कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दलील के आधार पर शीर्ष अदालत को भी कहना पड़ा कि अगर विशेष गहन पुनरीक्षण में बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम हटाए जाते हैं, तो न्यायालय हस्तक्षेप करेगा।

मतदाता सूचियों में बड़ी संख्या में फर्जी नामों का पंजीकरण

चुनाव आयोग के मुताबिक, इस प्रक्रिया के दौरान राज्य में पंजीकृत पैंसठ लाख लोगों ने गणना प्रपत्र जमा नहीं किए हैं, क्योंकि वे या तो मृत हैं या स्थायी रूप से कहीं और स्थानांतरित हो गए हैं। यानी अगर इन लोगों की ओर से आने वाले दिनों में कोई आवेदन दायर नहीं किया जाता है, तो उनका नाम मतदाता सूची से हटाया जा सकता है। हालांकि, आयोग कह चुका है कि मतदाता सूचियों में बड़ी संख्या में फर्जी नामों का पंजीकरण है, जिसे दुरुस्त करना जरूरी है और यह प्रकिया देश भर में चलाई जाएगी।

भारत दे रहा मालदीव को 4,850 करोड़ की मदद! भरोसे की दोस्ती से खुले नए दरवाजे तो बढ़ी चीन की बेचैनी

मगर सवाल इस प्रकिया के समय और बिहार से इसकी शुरूआत करने को लेकर भी है। विपक्षी दलों और कुछ सामाजिक संगठनों की दलील है कि चुनाव से ठीक पहले यह कदम उठाना अनुचित है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि जो लोग किसी कारणवश अपनी नागरिकता का वैध दस्तावेज समय पर नहीं दे पाएंगे, वे मताधिकार से वंचित हो सकते हैं।

शीर्ष अदालत ने इस मामले पर पहले सुझाव दिया था

शीर्ष अदालत ने इस मामले पर पहले सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग को इस प्रकिया में नागरिकता प्रमाण पत्र के रूप में आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को भी शामिल करने पर विचार करना चाहिए। अब आयोग की दलील है कि वह पहचान के उद्देश्य से आधार और मतदाता पहचान पत्र का उपयोग कर रहा है, लेकिन ये दोनों नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं और इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि जब किसी बैंक में खाता खुलवाने से लेकर रसोई गैस के लिए पंजीकरण के वास्ते आधार अनिवार्य है, तो वह नागरिकता की प्रमाणिकता के लिए वैध दस्तावेज क्यों नहीं है?

भगदड़ बन चुकी है रोज की खबर, लेकिन जवाबदेही किसी की नहीं… हर हादसे के बाद वही लापरवाही

मतदाता पहचान पत्र तो चुनाव आयोग की निगरानी में ही बनते हैं, फिर उन्हें भरोसे का दस्तावेज क्यों नहीं माना जा रहा? फिर आयोग की सूची में जिस आवासीय प्रमाणपत्र को जगह दी गई, उसकी हालत यह है कि बिहार के मसौढ़ी से एक कुत्ते के नाम पर निवास प्रमाण पत्र जारी करने की खबर आई। ऐसे में किस प्रमाणपत्र को सबसे विश्वसनीय माना जाएगा? यह सच है कि देश में चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए रखने के लिए मतदाता सूची में संशोधन की प्रक्रिया जरूरी है। मगर इस प्रक्रिया की जटिलता से कोई योग्य मतदाता मतदान के अधिकार से वंचित न हो, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी चुनाव आयोग पर ही है।