लोकतंत्र को वास्तव में जमीन पर उतारने के संदर्भ में लंबे वक्त से यह बहस चलती रही है कि राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के लिए क्या किया जा रहा है। ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है, जो लोकतांत्रिक ढांचे में आपराधिक छवि के लोगों के जगह बनाने का समर्थन करता हो। लेकिन विचित्र यह है कि अमूमन सभी पार्टियां चुनाव के वक्त सिर्फ इस बात का ध्यान रखती हैं कि किसी सीट पर उन्हें ही जीत मिले, भले ही उसके लिए उन्हें किसी दागी या आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को टिकट देना पड़े।
देश की विधायिका में बड़ी संख्या में अपराध के आरोपी
यह बेवजह नहीं है कि आज भी देश की विधायिका में एक खासी तादाद वैसे लोगों की है, जो किसी अपराध के आरोपी रहे हैं, लेकिन अब वे जनप्रतिनिधि के रूप में लोकसभा या फिर किसी विधानसभा में मौजूद हैं। सवाल है कि पिछले कई दशक से राजनीतिक हलकों से लेकर अदालतों तक में आपराधिक पृष्ठभूमि वालों के चुनाव लड़ने पर उठने वाली आपत्तियों के बावजूद आज भी संसद या विधानसभाओं के लिए ऐसे लोगों की उम्मीदवारी पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकी है!
इस मसले पर चुनाव आयोग की ओर से अक्सर कई स्तर पर हिदायतें दी जाती रही हैं। नामांकन के वक्त निर्धारित प्रपत्र में उम्मीदवारों की ओर से अपने अतीत का ब्योरा दर्ज कराया जाता है, जिसमें अपने आपराधिक रिकार्ड या खुद पर आरोप होने के बारे में भी बताया जाता है। इसके अलावा, चुनाव आयोग उम्मीदवारों से अपने ऊपर आपराधिक मामले सार्वजनिक रूप से जाहिर करने के लिए कहता है, जिसमें इससे संबंधित विज्ञापन देना भी शामिल है।
राजस्थान में उम्मीदवारों को विज्ञापन देकर बताना होगा आपराधिक रिकॉर्ड
इसी क्रम में राजस्थान विधानसभा के लिए होने वाले चुनावों की व्यवस्था के मद्देनजर रविवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि उम्मीदवारों कोे अखबारों में विज्ञापन देकर अपने आपराधिक रिकार्ड की स्पष्ट जानकारी देनी होगी। साथ ही राजनीतिक दलों को भी यह कारण बताना होगा कि पार्टी ने उस व्यक्ति को उम्मीदवार के तौर पर क्यों चुना है। यानी अगर मतदाताओं के सामने उम्मीदवारों के अतीत और चाल-चरित्र आदि के बारे में पूरी जानकारी होगी, तो वे अपने मत की कीमत समझते हुए आपराधिक छवि के लोगों को वोट नहीं देंगे।
निश्चित रूप से चुनाव आयोग की मंशा राजनीति और लोकतंत्र को अपराध की छाया से मुक्त करने की है। लेकिन देश भर में पिछले कई चुनावों के मौके पर ऐसी ही घोषणाओं के बावजूद अब तक इस तस्वीर में क्या फर्क आ सका है? हालत यह है कि एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की हाल की एक रपट के मुताबिक, चालीस फीसद मौजूदा सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें पच्चीस फीसद गंभीर अपराध से जुड़े हैं।
आखिर क्या वजह है कि चुनाव आयोग की बार-बार की घोषणाएं जमीनी स्तर पर लागू होती नहीं दिखती हैं। सवाल यह भी है कि अगर आयोग की ओर से उम्मीदवारों को विज्ञापन देकर अपने अपराधों के बारे में बताने का निर्देश दिया जा रहा है तो क्या यह प्रकारांतर से राजनीति के अपराधीकरण को स्वीकृति देना है? ऐसे नियम क्यों नहीं बनाए जाते, जिसके तहत आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक हो और मतदाताओं के सामने आपराधिक छवि के उम्मीदवारों का विकल्प खत्म हो जाए? केवल अच्छी मंशा से किसी नियम की घोषणा करने से राजनीति में अपराधीकरण का जोर कम नहीं होगा। बल्कि लोकतंत्र को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों से बचाने के लिए ईमानदार और स्पष्ट इच्छाशक्ति के साथ नियमों को लागू करने की जरूरत है।