अब यह तय हो गया है कि पश्चिम बंगाल में आठ जुलाई को केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में पंचायत चुनाव कराए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश में दखल देने से इनकार करते हुए जो टिप्पणी की है, उसपर राजनीतिक दलों के साथ ही चुनाव कराने वाले नियामक तंत्र को भी गंभीरता से सोचना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट कहा कि चुनाव कराना ‘हिंसा का लाइसेंस’ प्राप्त करना नहीं है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक अहम प्रक्रिया है। अगर चुनाव को धनबल, बाहुबल या अन्य किसी भी तरीके से प्रभावित करने की कोशिश होती है तो इस प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठते हैं। पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद से ही बंगाल में राजनीतिक हिंसा जोर पकड़ने लगी है। नामांकन की प्रक्रिया चल रही है। इस दौरान हिंसा की खबरें आ रही हैं।

वर्ष 2018 के स्थानीय निकाय चुनाव में केंद्रीय बलों की तैनाती नहीं हुई थी और एक तिहाई से ज्यादा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार निर्विरोध जीत गए थे। अधिकांश सीटों पर विपक्षी दल अपने उम्मीदवार ही नहीं दे पाए थे। इस बार हाल कुछ बेहतर है। विपक्षी दलों को 341 ब्लाक में से सिर्फ लगभग 50 में परेशानी हुई है। हिंसा के ताजा दौर के घटनाक्रम गौर करने लायक हैं। 15 जून को कलकत्ता हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के निर्देश दिए।

बंगाल के राज्य चुनाव आयुक्त ने सरकार के आदेश का इंतजार करना बेहतर समझा। फिर राज्य सरकार और राज्य चुनाव आयोग- दोनों ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। किसी फैसले से सहमत नहीं होने पर ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है, लेकिन क्या इससे चुनाव आयोग के दायित्व बोध का प्रमाण मिल रहा है? क्या नागरिक इस बात के लिए निश्चिंत हो पा रहे हैं कि चुनाव आयोग की निगरानी में वे सुव्यवस्थित तरीके से मतदान कर पाएंगे। उचित यह होता कि राज्य चुनाव आयोग संवेदनशील इलाकों की सूची तैयार करता और हिंसा की घटनाओं पर नजर रखता।

राजनीतिक पकड़ के लिए सभी दल हर हथकंडे अख्तियार करना चाहते हैं, क्या इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के उद्देश्य की पूर्ति होती है? बंगाल एक ऐसा राज्य है, जहां प्रत्येक चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा होती है। वहां पंचायत चुनावों को लेकर शुरू हुई हिंसा जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रही है, उससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि राज्य सरकार या तो इस हिंसा को रोकने में समर्थ नहीं या फिर वह इसके लिए इच्छुक ही नहीं।

इसका संकेत नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ होते ही हिंसा और हत्या के सिलसिले पर मुख्यमंत्री और उनके सहयोगियों के बयानों से मिलता है। वे या तो हिंसा से इनकार कर रहे हैं या फिर उसके लिए विपक्षी दलों पर दोष मढ़ रहे हैं। ऐसा संवेदनहीन रवैया उपद्रवियों का दुस्साहस बढ़ाने वाला है। ऐसे रवैए का परिचय तब दिया जा रहा है, जब अभी तक कम से कम आठ लोगों की चुनावी हिंसा में जान जा चुकी है।