दिल्ली की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन का खूब प्रचार किया जाता है। विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों और शिक्षा मंत्रियों को ही नहीं, विदेशी प्रतिनिधिमंडलों को भी यहां का शिक्षा माडल देखने के लिए आमंत्रित किया जाता है। दिल्ली सरकार इस सबका बढ़-चढ़ कर दिखावा भी करती है। लेकिन क्या वास्तव में यहां के स्कूलों में इतना बदलाव आया है कि उन्हें उदाहरण के तौर पर देखा जा सके? सरकार के दावों के उलट सूचना का अधिकार कानून यानी आरटीआइ से मिले आंकड़े इसका निराशाजनक जवाब देते हैं। इसके मुताबिक, राजधानी के सरकारी स्कूलों में मौजूदा सत्र के दौरान विद्यार्थियों की संख्या में तीस हजार तक की कमी दर्ज की गई है।
अगर व्यवस्था दूसरे राज्यों के लिए नजीर है तो यहां मोहभंग क्यों हो रहा है
वर्ष 2022 में सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों की कुल संख्या जहां सत्रह लाख नवासी हजार तीन सौ पचासी थी, वहीं वर्ष 2023 में यह घटकर सत्रह लाख अठावन हजार नौ सौ छियासी रह गई। खास बात यह है कि उत्तर-पश्चिम और मध्य दिल्ली को छोड़ पूरे शहर के स्कूलों में विद्यार्थियों की कमी का रुझान एक जैसा है। सवाल यह है कि अगर दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था दूसरे राज्यों के लिए नजीर है, तो फिर यहां बच्चों का स्कूलों से मोह भंग क्यों हो रहा है।
तीन दर्जन स्कूलों को मिला है स्कूल आफ स्पेशलाइज्ड एक्सीलेंस का दर्जा
दिल्ली की ‘आप’ सरकार ने लगभग तीन दर्जन स्कूलों को ‘डाक्टर बीआर आंबेडकर स्कूल आफ स्पेशलाइज्ड एक्सीलेंस’ का दर्जा दिया है। ये वे स्कूल हैं, जिनमें दिल्ली शिक्षा बोर्ड के तहत विशेष विषयों की पढ़ाई होती है और इनमें आधारभूत ढांचा और सुविधाएं भी अन्य स्कूलों के मुकाबले बेहतर कही जा सकती हैं। आप सरकार इन्हीं स्कूलों को देश-दुनिया के सामने रखकर दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव का दम भरती है। लेकिन क्या इतने भर से पूरे शहर की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के दावे को हकीकत मान लिया जाए?
कोविड महामारी के दौरान बड़ी संख्या में लोगों ने अपने बच्चों का निजी स्कूलों से निकाल कर सरकारी स्कूलों में दाखिला कराया था। इसकी वजह से बीते तीन अकादमिक वर्षों में सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या पंद्रह लाख से बढ़कर अठारह लाख के करीब पहुंच गई थी। लेकिन अब सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की तादाद तेजी से कम हो रही है तो क्या इससे यह पता नहीं चलता कि शिक्षा की गुणवत्ता इस स्तर की नहीं है कि लोग अपने बच्चों को वहीं पढ़ने दें? सच यह है कि कुछ को छोड़ दें तो अधिकांश स्कूलों की हालत बहुत अच्छी नहीं है।
हालांकि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को गुणवत्ता के स्तर पर उच्च दर्जे के तौर पर पेश किया जाता है। लेकिन आखिर क्या कारण है कि खुद दिल्ली सरकार के अधिकारी, नेता, विधायक आदि अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिए यहां के सरकारी स्कूलों को तरजीह नहीं देते। अब हालत यह है कि आम लोगों के बच्चों की तादाद भी इन स्कूलों में कम हो रही है। दिल्ली सरकार शिक्षा पर अपने बजट का बीस फीसद से अधिक खर्च करने और शिक्षकों को विदेशी संस्थानों से प्रशिक्षण दिलाने का दावा करती है।
हकीकत यह है कि इस कवायद का असर स्कूल परिसरों में नहीं दिखता। अधिकांश स्कूलों में शिक्षकों के पढ़ाने का रवैया पहले जैसा ही है। सरकार वास्तव में शिक्षा व्यवस्था का ढांचा बदलना और नौनिहालों का भविष्य संवारना चाहती है तो स्कूलों की बदहाली के जिम्मेदार कारकों की पहचान कर पूरी दिल्ली में उन्हें दूर करने की ईमानदार कोशिश करनी होगी। सरकार का बेतहाशा प्रचार तभी गले उतरे, जब शिक्षा में बदलाव का असर जमीन पर भी दिखाई दे।