जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के दावों के बीच चालू वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर 5.4 फीसद रहने के आंकड़े स्वाभाविक रूप से निराशाजनक हैं। हालांकि जुलाई-सितंबर की तिमाही में अक्सर विकास दर सुस्त देखी जाती है, मगर आर्थिक संगठनों और खुद सरकार ने इसके करीब सात फीसद के आसपास रहने का अनुमान लगाया था। अब कहा जा रहा है कि अगली छमाही में विकास दर अच्छी रहेगी।
अक्तूबर-दिसंबर की तिमाही चूंकि त्योहारी मौसम की होती है, इसलिए इसमें वृद्धि देखी ही जाती है। मगर ताजा आंकड़े सकल घरेलू उत्पाद को लेकर चिंता पैदा करते हैं। दूसरी तिमाही में सबसे बुरी गत विनिर्माण और निर्माण क्षेत्र की रही। विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर 2.2 फीसद दर्ज हुई, जो पिछले वर्ष की समान अवधि में 14.3 फीसद थी। निर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वर्ष की समान अवधि की 13.6 फीसद से घट कर 7.7 पर पहुंच गई। इसी तरह आठ प्रमुख बुनियादी उद्योगों में वृद्धि दर घट कर 3.1 फीसद रह गई, जो कि पिछले वर्ष की समान अवधि में 12.7 फीसद थी। कृषि जैसे कुछ क्षेत्रों में मामूली वृद्धि को छोड़ दें, तो ज्यादातर क्षेत्रों में विकास दर सुस्त ही दर्ज हुई है।
स्थितियों में सुधार की बहुत संभावना नहीं
इस सुस्ती के पीछे तर्क दिए जा रहे हैं कि रेपो दर ऊंची रहने और महंगाई पर काबू न पाए जा सकने की वजह से उपभोक्ता व्यय घटा है। इसके अलावा राजस्व घाटा कम करने के उद्देश्य से सरकारी व्यय भी कम कर दिया गया है। इसका असर सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ा है। मगर फिलहाल इन स्थितियों में सुधार की बहुत संभावना नजर नहीं आती। विनिर्माण क्षेत्र में विकास दर सुस्त रहने का अर्थ है कि बड़े पैमाने पर लोगों के सामने रोजगार का संकट बढ़ा है।
प्रदूषण की आग से घुट रहीं विकासशील देशों की सांसें
यही क्षेत्र सबसे अधिक रोजगार उपलब्ध कराता है। रोजगार और लोगों की कमाई घटने का स्वाभाविक असर उपभोक्ता व्यय पर पड़ता है। लोग केवल जरूरी चीजों की खरीद करते हैं, विलासिता की और टिकाऊ कही जाने वाली वस्तुओं की खरीद कम होने लगती है। स्वाभाविक ही इससे उत्पादन घट जाता है। यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि पिछले नौ-दस वर्षों में लोगों की मजदूरी और औसत वेतन में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। लंबे समय से इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि जब तक लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ेगी, तब तक आर्थिक विकास के सारे उपाय तदर्थ ही साबित होंगे।
अन्य पहलुओं पर भी संतुलन साधने की जरूरत
अर्थव्यवस्था में मजबूती के लिए उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ अन्य पहलुओं पर भी संतुलन साधने की जरूरत होती है। निर्यात के मामले में लगातार निराशाजनक तस्वीरें आती रही हैं। चीन आदि देशों के साथ हमारा व्यापार घाटा निरंतर बढ़ रहा है। इसी तरह बेशक जीएसटी संग्रह में बढ़ोतरी के आंकड़े दर्ज हो रहे हों, पर हकीकत में राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। इस पर काबू पाने के लिए सरकारी व्यय में कटौती करनी पड़ रही है। जिस तरह विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आ रही है, उससे जाहिर है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सिकुड़ रहा है।
ऐसी स्थिति में विकास परियोजनाओं पर भी बुरा असर पड़ेगा। आर्थिक विकास के ताजा आंकड़े सरकार के लिए चेतावनी हैं कि उसे तदर्थ और अव्यावहारिक उपायों के बजाय बुनियादी कमजोरियों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसमें रोजगार और लोगों की आय में बढ़ोतरी के अवसर पैदा करने होंगे।