हर साल आम बजट से पहले आने वाली आर्थिक समीक्षा में कोई ऐसी जानकारी नहीं होती जो पहले से पता न हो। फिर भी इस समीक्षा की अहमियत बनी हुई है। खासकर दो वजहों से। देश की अर्थव्यवस्था की वस्तुस्थिति के बारे में यह एक आधिकारिक दस्तावेज होता है। इससे मौजूदा हालत का तो पता चलता ही है, आगामी वित्तवर्ष की बाबत उम्मीदों तथा चुनौतियों और सरकार के नजरिए का भी इजहार होता है। शुक्रवार को संसद में पेश की गई सालाना आर्थिक समीक्षा ने मौजूदा वित्तवर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर के 7.6 फीसद पर रहने का अनुमान जताया है। जबकि यह 2014-15 में 7.2 फीसद थी। समीक्षा में सरकार ने उम्मीद जताई है कि अगले वित्तवर्ष में वृद्धि दर सात से साढ़े सात फीसद के बीच होगी, और यह दो साल में आठ फीसद के स्तर पर भी जा सकती है। वृद्धि दर के लिहाज से देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत संतोषजनक कही जा सकती है। पर क्या वृद्धि दर ही एकमात्र पैमाना है?
खुद वित्तमंत्री ने आर्थिक समीक्षा में स्वीकार किया है कि देश की अर्थव्यवस्था के सामने कई चुनौतियां हैं। मसलन, निर्यात में लगातार गिरावट का रुख रहा है। जहां विश्व भर में मंदी का माहौल है वहीं घरेलू मांग में भी सुस्ती का आलम बना हुआ है। यह दौर कब खत्म होगा, इस बारे में आर्थिक समीक्षा भी खामोश है। फिर अगले वित्तवर्ष में वृद्धि दर का पक्का अनुमान कैसे लगाया जा सकता है? अभी जीडीपी की वृद्धि दर के लिहाज से अर्थव्यवस्था की संतोषजनक स्थिति जरूर है, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसमें सरकारी खर्चों का बड़ा योगदान है। निजी निवेश बढ़ने की उम्मीदों को लगातार झटका लगा है। विडंबना यह है कि अगले वित्तवर्ष में वृद्धि दर को जहां से प्रोत्साहन मिलने की बात आर्थिक समीक्षा में कही गई है वह सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर होने वाला अमल है, जिसका बोझ सरकारी खजाने पर ही पड़ना है। निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ाने के लिए दी जा रही रियायतें और प्रोत्साहन क्यों रंग नहीं ला रहे?
सरकार को जिस खास मोर्चे पर कामयाबी मिली है वह है राजकोषीय घाटे में कमी लाना। पर इसका श्रेय कुशल वित्तीय प्रबंधन को नहीं, कच्चे तेल की कीमतों में आई अपूर्व गिरावट को जाता है। लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने रुपए के अवमूल्यन को लेकर यूपीए सरकार को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पर आज वे इस मामले में खामोश हैं। डॉलर के मुकाबले रुपए की जो कीमत उनके प्रधानमंत्री बनने के समय थी, आज उससे भी कम है। सबसे बुरी हालत रोजगार सृजन के मोर्चे पर है। लोकसभा चुनाव के समय मोदी ने नई नौकरियों की उम्मीद जगाई थी। पर संगठित क्षेत्र में तो नौकरियां नहीं बढ़ीं, असंगठित क्षेत्र में भी रोजगार की असुरक्षा पहले से और बढ़ी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताजा आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। सबसे चिंताजनक हालत सरकारी बैंकों की है जिनका एनपीए बहुत खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बार-बार आगाह करने के बावजूद सरकार ने अभी तक एनपीए से निपटने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाए हैं। ऐसे में एकमात्र उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से रह गई है जिसने पिछले दिनों एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकारी बैंकों के उन डिफाल्टरों की सूची मांगी जिन पर पांच सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का बकाया है।