सरकारी नौकरियों के लिए चयन प्रक्रिया यों भी जटिल और कई बार बेवजह लंबी होती है। उसके बाद भी नियुक्ति पत्र मिलने, प्रशिक्षण और तैनाती में समय लग जाता है। तिस पर अगर किसी अभ्यर्थी को चयन हो जाने और वरीयता क्रम हासिल करने के बाद कहा जाए कि उसके पास संबंधित पद की अर्हता न होने की वजह से उसकी नियुक्ति रद्द की जाती है, तो उस पर क्या गुजरेगी, समझा जा सकता है।
ऐसे ही एक व्यक्ति का अट्ठाईस वर्ष पहले डाक विभाग में चयन हुआ था, मगर प्रशिक्षण से पहले कहा गया कि उसके पास उचित डिग्री नहीं थी। स्वाभाविक ही उस व्यक्ति ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में गुहार लगाई। करीब चार वर्ष सुनवाई के बाद न्यायाधिकरण ने अभ्यर्थी के पक्ष में फैसला सुनाया। उसके बाद डाक विभाग ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस फैसले को चुनौती दी।
करीब सत्रह वर्ष सुनवाई के बाद वहां से भी अभ्यर्थी के पक्ष में फैसला आ गया। तब डाक विभाग ने पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। चार वर्ष बाद वह याचिका भी खारिज हो गई। तब डाक विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, मगर अब उसने भी साफ कर दिया है कि अभ्यर्थी को नियुक्ति मिलनी चाहिए। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन अट्ठाईस वर्षों में अभ्यर्थी को किन मानसिक तनावों से गुजरना और कैसे अपना गुजारा चलाना पड़ा होगा।
किसी भी पद के लिए आवेदन मंगाए जाते हैं तो उसके लिए योग्यता और अनुभव आदि से संबंधित नियम और शर्तों का स्पष्ट उल्लेख होता है। आमतौर पर जो अभ्यर्थी उन शर्तों को पूरा करते हैं, वही आवेदन भेजते हैं। इसके बावजूद उन आवेदनों की छंटाई के लिए समिति बनाई जाती है, जो बारीकी से अनिवार्य शर्तों की जांच करती है।
फिर उन्हीं अभ्यर्थियों को प्रतियोगी परीक्षा के लिए बुलाया जाता है, जो अंतिम रूप से विज्ञापित पद की अनिवार्य अर्हता रखते हैं। प्रतियोगी परीक्षा पास कर जाने के बाद भी हालांकि नियुक्ति पत्र देने से पहले अभ्यर्थियों के मूल प्रमाणपत्रों की जांच की जाती है और अगर किसी ने उनमें किसी तरह की धोखाधड़ी की होती है, तो स्वाभाविक ही न सिर्फ उसका नियुक्ति पत्र रोक दिया जाता, बल्कि कई बार उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की जाती है।
मगर डाक विभाग के संबंधित मामले में चयन की अंतिम प्रक्रिया के बाद नियोक्ताओं ने पाया कि अभ्यर्थी ने दसवीं की परीक्षा व्यावसायिक वर्ग से उत्तीर्ण की थी। शर्तों में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं रहा होगा कि ऐसे वर्ग से उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के आवेदन स्वीकार नहीं किए जाएंगे। जाहिर है, दोष संबंधित विभाग का था, न कि अभ्यर्थी का।
मगर डाक विभाग की असावधानी की वजह से एक चयनित व्यक्ति को अट्ठाईस वर्षों तक भटकना पड़ा। हालांकि यह कोई अकेला मामला नहीं है, जब चयन की अंतिम प्रक्रिया के बाद भी अभ्यर्थी को इतने लंबे समय तक नियुक्ति पत्र के लिए संघर्ष करना पड़ा। कई राज्यों में राजनीतिक कारणों से किसी पद के लिए चयनित सारे के सारे अभ्यर्थियों के नियुक्ति पत्र रोक दिए गए।
उन्हें दुबारा उसी चयन प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। इस तरह अभ्यर्थियों के आठ-दस साल निकल जाते हैं। उनमें से कई युवकों की तो उम्र सीमा पार कर जाती है। उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसे कई प्रकरण देखे जा चुके हैं। आखिर चयन प्रक्रिया को ऐसी काहिली, राजनीतिक संकीर्णता और अस्पष्ट नियम-शर्तों में उलझा कर रखने से रोजगार के लिए जद्दोजहद कर रहे युवाओं को ही खमियाजा भुगतना पड़ता है।