भातीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि बढ़ती कीमतों और वैश्विक तनाव के कारण महंगाई पर काबू पाना मुश्किल बना हुआ है। उन्होंने यह भी माना है कि महंगाई पर काबू पाए बिना अर्थव्यवस्था में स्थायित्व ला पाना कठिन बना रहेगा। उनकी बातों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। इन दिनों जिस तरह पूरी दुनिया मंदी का सामना कर रही है और युद्धों की वजह से आपूर्ति शृंखलाएं बाधित हो गई हैं, उसमें कई चीजों की कीमतें बढ़ गई हैं।
उससे निपटने के लिए रिजर्व बैंक ने अपनी रेपो दरों को काफी समय से यथावत रखा है। पहले छह बार इन दरों में बढ़ोतरी कर महंगाई पर काबू पाने का प्रयास किया गया, मगर अभी वे जिस स्तर पर हैं, उससे बहुत सारे घर, वाहन, कारोबार आदि के लिए कर्ज ले चुके लोगों पर मासिक किस्तों का बोझ बढ़ गया है। हालांकि दुनिया के कई बैंकों ने अपनी ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, जिससे प्रतिभूति बाजारों के बहुत सारे निवेशकों ने उधर का रुख कर लिया है। मगर रेपो दरें ऊंची होने की वजह से भारतीय रिजर्व बैंक के लिए ऐसा करना कठिन है।
यह भी ठीक है कि कच्चे तेल की कीमतों में लगातार उतार-चढ़ाव से अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ है। इससे तेल की कीमतों में कमी लाने का विचार स्थगित रखना पड़ता है। इसका असर माल ढुलाई और वस्तुओं की उत्पादन लागत पर पड़ रहा है। मगर पिछले कुछ महीनों से भारत में महंगाई का रुख ऊपर की तरफ होने की वजह वैश्विक तनाव को मानना मुश्किल है। इसलिए कि सबसे अधिक महंगाई रोजमर्रा की वस्तुओं, मसलन सब्जी, फल, दूध, अनाज की कीमतों में देखी गई है। इनमें सबसे अधिक महंगाई सब्जियों की कीमतों में दर्ज हुई।
जबकि इस मौसम में सब्जियों की आवक अधिक होती है। मौसम भी लगभग अनुकूल ही रहा है। इन वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी का कारण वैश्विक तनाव नहीं माना जा सकता। माल ढुलाई का खर्च जरूर कुछ बढ़ा है, मगर यह कुछ महीनों की बात नहीं है। तेल की कीमतें लंबे समय से ऊंचे स्तर पर बनी हुई हैं, इसलिए माल ढुलाई और खेती में लागत पहले से बढ़ी हुई है। इसका एक पहलू यह भी है कि किसानों को उतनी कीमत नहीं मिल पा रही, जितनी बाजार में उपभोक्ता को चुकानी पड़ रही है। इससे जाहिर है कि महंगाई के पीछे कारण कुछ दूसरे हैं और उन्हें नियंत्रित करने की सख्त जरूरत है।
अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लाने की कोशिशें लंबे समय से चल रही हैं और रिजर्व बैंक का मानना है कि अगर महंगाई को पांच फीसद की सहनशीलता सीमा तक नियंत्रित कर लिया जाए, तो इस दिशा में कामयाबी मिल सकती है। मगर एक अजीब तरह का असंतुलन बन गया है। विकास दर के सात फीसद रहने का अनुमान व्यक्त किया जा रहा है, मगर लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ पा रही, इसलिए कि प्रति व्यक्ति आय घटी है।
अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए प्रति व्यक्ति आय का बढ़ना जरूरी है और यह तभी संभव है, जब रोजगार के अवसर बढ़ें। पर, औद्योगिक क्षेत्र का प्रदर्शन निराशाजनक है, इसलिए रोजगार के मोर्चे पर कमजोरी देखी जा रही है। कृषि क्षेत्र पर जैसा ध्यान दिया जाना चाहिए और बदलती स्थितियों के मुताबिक किसानों को जैसी सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए, वैसी नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में वैश्विक तनाव के हवाले से बढ़ती महंगाई से पल्ला झाड़ लेना उचित नहीं कहा जा सकता। लोग आखिर अपनी मुश्किलों के हल की उम्मीद किससे करें?