इसमें कोई दो राय नहीं कि जलवायु संकट आज विश्व भर में सभी देशों की चिंता में सबसे ऊपर है और इसके खतरे को कम करने या इससे पूरी तरह निपटने के लिए सभी देशों को अपनी ईमानदार इच्छाशक्ति जाहिर करनी होगी। मगर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि दिनोंदिन गहराते जा रहे इस संकट और इसके प्रभाव पर सभी देश विमर्श तो करते हैं, मगर इससे पार पाने के उपायों को लेकर वही देश अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं, जिनकी भूमिका इस मुश्किल को बढ़ाने में ज्यादा रही है।

जलवायु पर बढ़ते संकट के सवाल पर हर बार दोहरा रवैया अपनाते हैं

विकसित देशों का यह रुख अपने आप में परेशान करने वाला है कि वे पृथ्वी के जलवायु पर बढ़ते संकट के सवाल पर हर बार दोहरा रवैया अपनाते हैं और इस मसले पर होने वाली तमाम बैठकों का हासिल अपने किसी मकसद तक नहीं पहुंच पाता। इस बार अजरबैजान के बाकू में भी सीओपी-29 की बैठक में उम्मीद जरूर की गई थी कि शायद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से बढ़ते वैश्विक तापमान और उससे निपटने के उपायों को जमीन पर उतारने को लेकर विकसित देश वास्तव में कुछ ठोस पहल करेंगे। मगर यह अफसोस की बात है कि इस विश्वव्यापी संकट के सवाल पर विकसित देशों को अपनी सुविधा कायम रखना ज्यादा अहम लगता है।

विकासशील देशों की मांगों को अनसुना कर दिया गया

गौरतलब है कि बाकू में संपन्न हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में समृद्ध देशों ने जलवायु वित्त पोषण के रूप में हर वर्ष तीन सौ अरब डालर की सहायता देने पर समझौता किया, वह भी सन 2035 से। जबकि विकासशील देशों की मांग तेरह सौ अरब डालर की थी। यानी एक तरह से विकासशील देशों की मांगों को अनसुना कर दिया गया। विकसित देशों के रुख और सहायता राशि में इतने बड़े अंतर पर विकासशील देशों के बीच गहरी निराशा पैदा हुई और इस पर मतभेद उभरना स्वाभाविक था।

भारत की ओर से यह साफ तौर पर कहा गया कि वह इस प्रस्ताव को वर्तमान स्वरूप में स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि प्रस्तावित राशि बहुत ही कम है और यह हमारे देश के अस्तित्व के लिए जरूरी जलवायु कार्रवाई को असंभव बनाएगी। भारत ने समझौते को अपनाने के तरीके को भी आपत्तिजनक और ‘पूर्व नियोजित’ बताया। समस्या के स्वरूप और उससे निपटने के उपायों के मद्देनजर भारत की आपत्ति को विकासशील देशों का समर्थन मिला, वहीं विकसित देशों के बीच एक विचित्र चुप्पी देखी गई।

यह सही है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है और इसमें सबसे ज्यादा बड़ी भूमिका दुनिया के समृद्ध या विकसित देश ही निभाते हैं। दूसरी ओर, ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों की भूमिका में इसमें अपेक्षया कम है और विकास की निरंतरता को कायम रखने के लिए उनकी कुछ व्यावहारिक जरूरतें हैं। इसी के मद्देनजर विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से उपजने वाले संकट से पार पाने में मदद के लिए विकसित देशों का वित्तीय और तकनीकी संसाधन जुटाने का दायित्व है।

इसी जिम्मेदारी के तहत विकसित देशों ने सन 2020 से हर वर्ष सौ अरब डालर जुटाने की पेशकश की थी। वह दावा कितना पूरा हुआ, यह सभी जानते हैं। मगर वक्त और जरूरत के मुताबिक तेरह सौ अरब डालर की मांग को सिर्फ तीन सौ अरब डालर तक समेट देने का औचित्य समझ से परे है। सवाल है कि अगर पृथ्वी के जलवायु पर बढ़ते संकट के मसले को विकसित देश वास्तव में गंभीर मानते हैं, तो उसके मुख्य कारकों और उसके हल के व्यावहारिक उपायों में अपनी सक्रिय सहभागिता निभाने के बजाय वे अपने कदम पीछे क्यों खींच लेते हैं!