सरकार के सामने अपनी मांग रखना नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है, मगर शायद लोग अब भूलते जा रहे हैं कि इसका भी लोकतांत्रिक तरीका होता है। अब जैसे मामूली मांगों पर भी हिंसा के जरिए दबाव बनाना एक चलन-सा बनता जा रहा है। कुछ समय तक लोग मांग उठाते हैं, धरना-प्रदर्शन करते हैं, फिर अचानक हिंसा पर उतर आते हैं।
मेघालय में भी यही हुआ। सोमवार रात को अचानक भीड़ ने मुख्यमंत्री सचिवालय पर हमला कर दिया, पत्थरबाजी शुरू कर दी। उसमें पांच पुलिसकर्मियों को चोटें आई। भीड़ पर काबू पाने के लिए आंसू गैस के गोले दागने पड़े। बताया जा रहा है कि तुरा शहर को शीतकालीन राजधानी बनाने की मांग पर लंबे समय से आंदोलन चल रहा है, उसी को लेकर भीड़ ने यह हमला किया।
इस मांग को लेकर आंदोलन चलाने वाले दो समूह प्रमुख हैं- अचिक कान्सियस होलिस्टिकली इंटीग्रेटेड क्रिमा और गारो हिल्स स्टेट मूवमेंट कमेटी। सोमवार शाम को इन दोनों संगठनों के नेताओं से मुख्यमंत्री कोनराड संगमा अपने कार्यालय में बातचीत कर रहे थे। उसी दौरान लोगों की भीड़ ने कार्यालय पर हमला कर दिया। अब पुलिस ने हमला करने वालों की पहचान कर उन्हें गिरफ्तार करना शुरू कर दिया है।
पहाड़ी राज्यों में दो राजधानी होना कोई नई बात नहीं है। मेघालय के लोगों का भी तर्क है कि जिस तरह जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में शीतकालीन राजधानी अलग हैं, उसी तरह उनके यहां भी तुरा शहर को शीतकालीन राजधानी बनाया जाए। उत्तराखंड में भी गैरसैण को राजधानी बनाने की मांग को लेकर आंदोलन चलते रहते हैं।
दरअसल, राजधानी बनने से संबंधित शहर की कानून-व्यवस्था पर भी असर पड़ता है। स्वाभाविक ही वहां की प्रशासनिक व्यवस्था दूसरे शहरों की तुलना में चुस्त-दुरुस्त होती है। फिर राजधानी बनने से उस शहर में व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ जाती हैं। रोजगार के नए अवसर बनते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही कई जगह लोग अपने शहर में राजधानी की तरह की कानून-व्यवस्था चाहते हैं।
मगर मेघालय में जिस तरह इस मांग को हिंसक रूप देने का प्रयास किया गया, उसे किसी भी रूप में लोकतांत्रिक तरीका नहीं कहा जा सकता। अब इस घटना में शामिल लोगों की जिस रूप में पहचान हो रही है, उससे स्पष्ट है कि इस आंदोलन को राजनीतिक रूप देकर सत्तापक्ष को बदनाम करने और उस पर दबाव बनाने का प्रयास किया गया। गिरफ्तार लोगों में दो भाजपा महिला मोर्चा के सदस्य भी हैं, दो तृणमूल कांग्रेस से जुड़े लोगों की तलाश जारी है।
नागरिक आंदोलनों को राजनीतिक दलों द्वारा हड़पा जाना या उन्हें गुमराह कर अपने पक्ष में लाभ लायक बना लेना कोई नई बात नहीं है। अक्सर सत्तापक्ष पर दबाव बनाने या उसे बदनाम करने की नीयत से विपक्षी दल नागरिक आंदोलन को हिंसक बना देने का प्रयास करते देखे जाते हैं। इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मेघालय में भी ऐसा ही हुआ हो।
मगर इसके उलट यह भी देखा जाता है कि जब भी कोई नागरिक आंदोलन किसी भी वजह से हिंसक रूप ले लेता है तो सत्तापक्ष उसमें अपने विपक्षियों का नाम शामिल कर अपनी कमजोरियों को ढंकने का प्रयास करता है। जो हो, पर चिंता की बात यह है कि शीतकालीन राजधानी बनाने का मुद्दा ऐसा जटिल विषय नहीं है, जिसका आंदोलनकारियों और सरकार के बीच उसके तकनीकी पहलुओं पर बातचीत करके समाधान न निकाला जा सके। आंदोलनकारियों से भी लोकतांत्रिक तरीके की अपेक्षा स्वाभाविक है।