दिल्ली में नगर निगम कर्मचारियों की हड़ताल से फैली गंदगी के बीच राजनीति चमकाने का मलिन खेल जारी है। बकाया वेतन भुगतान के मुद्दे पर छह दिनों से जारी इस हड़ताल में डॉक्टरों और शिक्षकों के भी शामिल हो जाने से स्वास्थ्य सेवाएं और प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था चरमरा जाने का नया खतरा पैदा हो गया है। गौरतलब है कि उत्तरी और पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अस्पतालों के तीन हजार वरिष्ठ डॉक्टर, पांच हजार रेजिडेंट डॉक्टर, पंद्रह से बीस हजार नर्सें और बीस हजार अन्य स्वास्थ्यकर्मी भी सोमवार को हड़ताल पर चले गए। डॉक्टरों के संघ के मुताबिक साल भर से उनके वेतन का संकट गहराया हुआ है।

इन्हीं दोनों नगर निगमों के ग्यारह सौ स्कूलों के साढ़े तेरह हजार शिक्षक भी हड़ताल में शामिल हो गए हैं। उनका कहना है कि जब तक बकाया वेतन नहीं मिलता, तब तक वे नहीं पढ़ाएंगे। इन निगमों के करीब बारह हजार इंजीनियर भी हड़ताल पर हैं। हड़ताल के दायरे के इस विस्तार का चिंताजनक पहलू यह है कि कर्मचारियों की समस्याओं के समाधान या मांगों पर किसी फैसले तक पहुंचने के बजाय दोनों पक्षों की दिलचस्पी सियासी रस्साकशी में बाजी मारने की तिकड़मों में ज्यादा है। इस हड़ताल के लिए आम आदमी पार्टी और भाजपा एक-दूसरे को कसूरवार ठहरा रही हैं।

भाजपा-शासित नगर निगमों का कहना है कि उन्हें दिल्ली सरकार से कर्मचारियों के वेतन आदि मदों की पूरी राशि नहीं मिल रही है। इस पर दिल्ली सरकार का जवाब है कि वह पहले ही तमाम देय रकम का भुगतान निगमों को कर चुकी है, फिर भी कर्मचारियों को वेतन क्यों नहीं दिया गया इसकी जांच होनी चाहिए। दिल्ली सरकार ने हालांकि हड़ताल के चलते राजधानी में जगह-जगह फैले कूड़े की सफाई के लिए लोक निर्माण विभाग व जल बोर्ड कर्मचारियों के साथ अपने मंत्रियों-विधायकों को भी उतारा है, लेकिन क्या ऐसे सीमित और फौरी उपाय पर्याप्त कहे जा सकते हैं? असल में तो निगमकर्मियों की एकही मुद््दे पर बार-बार हो रही हड़ताल का स्थायी समाधान निकालने के लिए संजीदगी से प्रयास करने की जरूरत है।

शासन के राष्ट्रीय या राज्य-स्तरीय कार्यों से इतर स्थानीय निकायों के कामकाज से आम जन-जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है। साफ-सफाई, प्राथमिक शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं बाधित होने से अफरातफरी फैलना स्वाभाविक है। ये सेवाएं सुचारु रूप से चलें, इसके लिए शासन के तीनों स्तरों पर परस्पर स्वस्थ तालमेल बहुत जरूरी है। लेकिन अफसोस की बात है कि विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग दल सत्तारूढ़ हों तो उनके बीच अक्सर राजनीतिक हितों का टकराव कई बार जनहित को बंधक बनाने की हद तक चला जाता है।

दिल्ली में भी राज्य सरकार और नगर निगमों पर किसी एक ही पार्टी के काबिज न होने को निरर्थक टकराव की वजह बना दिया गया है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और कामकाज में अड़ंगेबाजी की यह मैली राजनीति लोकतांत्रिक तकाजों-सरोकारों को तो आहत करती ही है, जनप्रतिनिधियों से जनता की उम्मीदों पर भी पानी फेरती है। दिल्ली में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही आम आदमी पार्टी की सरकार केंद्र पर उसे सहयोग न देने और उपराज्यपाल की मार्फत कामकाज में टांग अड़ाने के आरोप लगाती रही है। विडंबना है कि कमोबेश यही आरोप आप सरकार पर दिल्ली के नगर निगमों की कमान संभालने वाली भाजपा लगा रही है। दावों-प्रतिदावों और आरोप-प्रत्यारोप के बीच दोनों पार्टियां दिल्ली की हड़ताल से बेहाल जनता को नागरिक सुविधाओं से आखिर कब तक वंचित रहने पर मजबूर करेंगी?