दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपने शासन काल में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव करने और उससे व्यापक पैमाने पर जनता का हित सुनिश्चित करने के दावे बढ़-चढ़ कर किए हैं। मगर इन दोनों क्षेत्रों में जो तस्वीरें सार्वजनिक रूप से पेश की गई, उसकी जमीनी हकीकत वैसी ही नहीं रहीं।

जहां तक स्वास्थ्य के क्षेत्र का सवाल है, अस्पतालों की दशा सुधारने से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं तक आम लोगों की आसान पहुंच के लिहाज से ‘मोहल्ला क्लीनिक’ भी खोले गए। मगर व्यवहार में इसका अपेक्षित लाभ लोगों को नहीं मिल सका। इसके समांतर पिछले कुछ महीनों के दौरान दिल्ली के कुछ सरकारी अस्पतालों से जिस तरह दवाइयों और अन्य संसाधनों की कमी के कई मामले सामने आए, उससे यही पता चलता है कि एक तरह की अव्यवस्था पसर रही है, जिसका खमियाजा वहां पहुंचने वाले मरीजों को उठाना पड़ता है। गौरतलब है कि द्वारका इलाके में बुधवार को दिल्ली सरकार के इंदिरा गांधी अस्पताल में भर्ती मरीज के परिजनों को रुई बाहर से खरीद कर लाने को कहा गया। यह स्थिति अपने आप में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का सच बताने के लिए काफी है।

एक उपलब्धि और ‘माडल’ के रूप में बहुप्रचारित सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालत ऐसी क्यों देखने में आ रही है कि किसी अस्पताल में दवाइयां नहीं हैं तो कहीं रुई जैसी सबसे बुनियादी जरूरत की चीजें भी मरीजों के तीमारदारों को बाहर से लानी पड़ रही हैं। कुछ समय पहले खुद उपराज्यपाल ने यहां के स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिख कर दिल्ली सरकार के कामकाज और दावों पर सवाल उठाए थे।

दिल्ली के कुछ अस्पतालों में दवाइयों की कमी से जूझने की भी कई खबरें आई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच आखिर यह व्यवस्था सुनिश्चित करना किसकी जिम्मेदारी है कि लोग जब किसी बीमारी का इलाज कराने दिल्ली के किसी अस्पताल में पहुंचें तो वहां चिकित्सक, जरूरी दवाइयां और अन्य बुनियादी संसाधन उपलब्ध हों? सिर्फ प्रचार और दावा करने से किसी सेवा में सुधार नहीं होता, बल्कि उसके लिए वास्तव में पहल करनी पड़ती है। अगर कोई अड़चन आए, संसाधनों की कमी पैदा हो तो उसका विकल्प निकालना पड़ता है, ताकि समस्या का समाधान निकले।