यह लापरवाही नहीं तो और क्या है कि देश के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल दिल्ली ने राष्ट्रीय वायु स्वच्छता कार्यक्रम के तहत मिली राशि का एक तिहाई से भी कम खर्च किया है। ऐसे में यहां स्वच्छ वायु की उम्मीद कैसे की जा सकती है। अगर यहां के बाशिंदों को साफ हवा नहीं मिलती है, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? प्रदूषण और तापमान का जनजीवन पर संयुक्त प्रभाव वास्तव में चिंता का विषय है। एक नए अध्ययन में कहा गया है कि गर्मी और प्रदूषण का एक साथ होना सुरक्षित प्राकृतिक हवा के अवसरों को सीमित कर देता है।
सीईपीटी विश्वविद्यालय और जलवायु प्रौद्योगिकी कंपनी की इस अध्ययन रपट को हमें गंभीरता लेना होगा। इसमें कहा गया है कि दिल्ली में हर वर्ष लगभग 2,210 घंटे ऐसे होते हैं, जब तापमान 18 से 31 डिग्री के बीच रहता है। इस दौरान 1,951 घंटे ऐसे होते हैं, जब वायु गुणवत्ता खराब होती है। यानी 259 घंटे ही लोगों को साफ हवा मिल पाती है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण का नागरिकों की सेहत पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है। एक तरफ उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना है, तो दूसरी ओर असहज तापमान के जोखिम से भी बचना है। कुछ शहरों की स्थिति दिल्ली से बेहतर जरूर हो सकती है, लेकिन भविष्य में वहां भी यही समस्या गहराने वाली है। लिहाजा, इन परिस्थितियों में जीने की आदत डालने के बजाय इस चुनौती का सामना करने के लिए कुछ नए उपाय करने होंगे।
ऐसे सुझाव भी दिए जा रहे हैं कि घर इस तरह से बनाए जाएं, जहां ऊर्जा की बचत के साथ हवा का बेहतर प्रवाह हो। सेहत और सुकून के लिए अब जरूरी है कि शहरों और महानगरों में मौसम के अनुकूल नए भवन बनें और पुराने घरों में पर्यावरण नियंत्रण प्रणाली की व्यवस्था हो। इससे स्वच्छ हवा अधिक मिल सकेगी। इस दिशा में गंभीरता सोचने का वक्त आ गया है।