संविधान पीठ ने कुछ को छोड़ कर सभी विभागों के अधिकारियों के चयन और तबादले का अधिकार दिल्ली सरकार को दे दिया। मगर केंद्र सरकार को वह फैसला रास नहीं आया। शुक्रवार को उसने अध्यादेश जारी कर दिल्ली सरकार के अधिकारों का अधिग्रहण कर लिया। अधिकारियों की तैनाती और तबादले के लिए राष्ट्रीय राजधानी लोकसेवा प्राधिकरण का गठन कर दिया गया, जिसके अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री को और दो अन्य सदस्यों के रूप में प्रधान सचिव और केंद्रीय गृहमंत्रालय के प्रधान सचिव को नामित कर दिया गया।

नियम बनाया गया कि सदस्यों के बहुमत के आधार पर नियुक्तियों और तबादलों से संबंधित फैसले होंगे। जाहिर है, इस आयोग में भी केंद्र सरकार की शक्ति अधिक रखी गई है, यानी केंद्र सरकार जिसे चाहेगी वही अधिकारी दिल्ली सरकार में तैनात किया जा सकेगा। इसे लेकर स्वाभाविक ही विपक्ष और मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी ने विरोध शुरू कर दिया है। दिल्ली सरकार इस अध्यादेश को अदालत में चुनौती देगी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आश्वस्त हैं कि यह अध्यादेश अदालत में एक दिन भी नहीं टिकेगा।

यह बात किसी को भी गले नहीं उतर रही कि आखिर केंद्र सरकार क्यों इस जिद पर अड़ी है कि दिल्ली सरकार को एक चुनी हुई सरकार के अधिकार हासिल न होने पाएं। वह उसकी सारी प्रशासनिक शक्तियां अपने हाथ में क्यों रखना चाहती है। शुरू से ही, दिल्ली के जो भी उपराज्यपाल नियुक्त हुए, वे केंद्र की इच्छाओं के अनुरूप ही काम करते रहे।

इसे लेकर दिल्ली सरकार लगातार केंद्र पर आरोप लगाती रही कि वह उसे काम नहीं करने दे रही। पांच साल पहले भी वह अदालत गई थी कि उसके अधिकारों की व्याख्या की जाए। तब भी अदालत ने यही कहा था कि दिल्ली सरकार लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है, इसलिए उसे प्राशासनिक फैसले करने का अधिकार है। मगर किसी भी उपराज्यपाल ने उसे गंभीरता से नहीं लिया।

वर्तमान उपराज्यपाल ने तो एक तरह से दिल्ली सरकार के सारे अधिकार अपने हाथों में लेने की कोशिश की। नगर निगम में भी उन्होंने संवैधानिक नियमों को ताक पर रखते हुए अपनी पसंद के दस सदस्य मनोनीत कर दिए। इसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अनधिकार चेष्टा करार दिया। फिर भी केंद्र ने अदालत के फैसले का सम्मान करना जरूरी नहीं समझा।

सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने उपराज्यपाल और चुनी हुई सरकार की शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या कर दी थी, फिर भी केंद्र को वह रास नहीं आई, तो इससे यह भी जाहिर होता है कि उसे न तो संविधान के नियमों की परवाह है और न अदालत की संविधान पीठ का। आखिरकार वह अपने ही फैसले लागू करना चाहती है। इससे एक बार फिर केंद्र सरकार की किरकिरी हुई है।

अब आम आदमी पार्टी को बैठे-बिठाए एक और मुद्दा मिल गया है भाजपा और केंद्र सरकार को घेरने का। इससे आम लोगों में केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर कोई अच्छा संदेश नहीं गया है। लोकतंत्र में संविधान सर्वोपरि होता है और अगर कोई सरकार उसे दरकिनार करके अपनी जिद को ऊपर रखने का प्रयास करती है, तो उससे उसका पक्ष कमजोर ही होता है। अगर केंद्र के इस अध्यादेश को अदालत ने निरस्त कर दिया, तो फिर और किरकिरी होगी।