अंतरराष्ट्रीय माफिया दाऊद इब्राहीम की संपत्ति की नीलामी से एक बार फिर आतंक के खिलाफ लड़ने में लोगों के साहस का संदेश गया है। जिस व्यक्ति का नाम खौफ का पर्याय रहा हो, उसकी संपत्ति की नीलामी में बोली लगाना और उसे अपने नाम कराना असाधारण साहस की बात है। खासकर तब जब दाऊद के गिरोह की ओर से नीलामी के पहले ही खरीदारों को धमकियां दी गई थीं। इसके बावजूद अगर कुछ लोगों ने बोली लगाई, तो दाऊद सहित अपराध की दुनिया और आतंक के सौदागरों के लिए एक सख्त संदेश है। गौरतलब है कि मुंबई में तस्कर एवं विदेशी मुद्रा विनिमय हेराफेरी (संपत्ति जब्ती) कानून, 1976 के तहत की गई नीलामी में एक पूर्व पत्रकार एस बालाकृष्णन ने दाऊद के होटल ‘दिल्ली जायका’ को चार करोड़ अट्ठाईस लाख रुपए में खरीद लिया। जबकि खबरों के मुताबिक दाऊद के साथी छोटा शकील की तरफ से उन्हें नीलामी में हिस्सा न लेने की चेतावनी दी गई थी। इसके अलावा, हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि ने दाऊद की एक कार बोली लगा कर तीन लाख बाईस हजार रुपए में खरीदी।

दाऊद की संपत्ति कोई ऐतिहासिक महत्त्व की नहीं है, जिसे कोई दस्तावेज के रूप में रख कर गौरव महसूस करना चाहेगा। यह महज प्रतीकात्मक प्रतिरोध है। इन संपत्तियों के लिए करीब एक दशक पहले भी बोली लगी थी, लेकिन तब दाऊद के खौफ और विवादित जायदाद होने की वजह से नीलामी नहीं हो सकी थी। तब एक सुझाव यह भी आया था कि दाऊद की संपत्ति की नीलामी करने के बजाय वह खुद सरकार को ले लेनी चाहिए और उस पर सरकारी दफ्तर या पुलिसकर्मियों के लिए घर बना देने चाहिए। मगर इसमें कानूनी अड़चन यह है कि फिलहाल सरकार संपत्ति को सिर्फ जब्त कर सकती है, वह खुद बोली नहीं लगा सकती।

बहरहाल, ताजा नीलामी के बाद यह सवाल बना रहेगा कि जिन लोगों ने बोली लगा कर इन संपत्तियों को खरीदा है, उन पर उन्हें कब कब्जा मिल पाता है। 2001 में इसी तरह की नीलामी में दिल्ली के एक वकील ने दाऊद की संपत्ति खरीदी थी, लेकिन उस पर कब्जे के लिए वे आज भी लड़ाई लड़ रहे हैं। जो हो, इस बार ‘दिल्ली जायका’ खरीदने वाले पत्रकार बालाकृष्णन ने इसमें अपने एनजीओ ‘देशसेवा समिति’ की ओर से कंप्यूटर शिक्षा केंद्र खोलने की घोषणा की है, जहां गरीब और कमजोर तबके की महिलाओं और बच्चों को कंप्यूटर की शिक्षा दी जाएगी। खास बात यह भी है कि इतनी बड़ी रकम बालाकृष्णन ने देश के आम लोगों से इकट्ठा करने की बात कही है। जाहिर है, इसे आतंक के विरुद्ध एक सामूहिक लड़ाई के प्रतीक के तौर पर देखा जाएगा।

हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब देश के लोगों ने आतंकी घटना या इसके किसी प्रतीक के सामने खड़ा होकर उसे चुनौती दी है। इसके पहले भी दिल्ली, मुंबई या देश के दूसरे तमाम इलाकों में जहां भी आतंकवादी घटनाएं हुर्इं, तो लोगों ने न केवल वारदात के वक्त अपने अधिकतम धीरज और हिम्मत से सामना किया, बल्कि उसके तुरंत बाद हालात को सामान्य बनाने में भी जी-जान से जुट गए। जबकि आतंकियों का मकसद निर्दोष लोगों को मारना और समाज में भय पैदा करना होता है। पर ऐसी हर घटना के बाद देश के लोगों ने जिस हौसले के साथ हालात को सहज बनाने में अपनी भूमिका निभाई, वह यहां के आम जीवन में घुली हुई उम्मीदों और जिजीविषा का ही सबूत है।