आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी उस आंदोलन से निकली है जिसकी मांग सशक्त लोकपाल की थी। केंद्र में लोकपाल के लिए कानून यूपीए सरकार के समय ही बन गया था, पर अब भी लोकपाल संस्था का गठन नहीं हो पाया है। इससे केंद्र की संजीदगी का अंदाजा लगाया जा सकता है। दूसरी ओर कसौटी पर आम आदमी पार्टी की सरकार है। वर्ष 2014 में जब अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी, जन लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए उतावले दिख रहे थे। मगर इस बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली की सत्ता में आने पर लोकपाल कानून के लिए विधेयक लाने में उन्हें नौ महीने लग गए। विधेयक का मसविदा उजागर होते ही विवादों में घिर गया है।

यही नहीं, केजरीवाल सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। मजे की बात है कि विधानसभा में विपक्षी पार्टी यानी भाजपा ने तो विधेयक की वैधानिकता पर सवाल उठाए ही हैं, उससे तीखी आलोचना स्वराज अभियान के नेताओं ने की है जो पहले आम आदमी पार्टी में ही थे। एक तरफ विधेयक पेश हो रहा था, और दूसरी तरफ, स्वराज अभियान के लोग विधानसभा के बाहर विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का आरोप है कि विधेयक अण्णा आंदोलन और उस वक्त बने प्रस्तावित मसविदे के अनुरूप नहीं है। जबकि आप नेताओं का दावा है कि विधेयक ने बहुत मजबूत लोकपाल का खाका बनाया है और इतने सख्त प्रावधान लोकायुक्त संबंधी अन्य कानूनों में नहीं हैं। दूसरे राज्यों के बरक्स इस दावे में दम दिखता है। पर क्या आप सरकार का विधेयक व्यावहारिक भी है?

इस विधेयक में अनेक कड़े प्रावधान हैं। मसलन, जनलोकपाल के पास जांच की शक्ति होगी जो शिकायत के अलावा भ्रष्टाचार का खुद संज्ञान ले सकेगा; स्वतंत्र जांच एजेंसी या सरकार के किसी अधिकारी को जांच सौंप सकेगा। साथ ही उसके पास अभियोजन शाखा होगी। जांच अधिकारी को छह महीने में जांच पूरी करनी होगी और विशेष अदालत को इतनी ही अवधि में मामले का निपटारा करना होगा। सरकारी खजाने को चपत लगाने के दोषी पाए जाने पर निजी कंपनी के निदेशक व प्रबंधक को भी सजा दिए जाने का प्रावधान है।
विसलब्लोअर को शारीरिक ही नहीं, प्रशासनिक प्रताड़ना से भी बचाने का प्रावधान इस विधेयक में किया गया है। लेकिन इन तमाम प्रावधानों से क्या हासिल होगा, जब विधेयक के कानून बन पाने की संभावना ही धूमिल दिख रही हो। विधेयक में यह भी प्रावधान है कि जन लोकपाल केंद्रीय कर्मचारियों के खिलाफ जांच और दंड की कार्रवाई कर सकेगा। क्या केंद्र सरकार इसकी इजाजत देगी? क्या केंद्र ऐसे विधेयक को मंजूर करेगा?

क्या केजरीवाल सरकार की रणनीति यह है कि अगर विधेयक पर केंद्र की मुहर लग जाए तो केंद्रीय महकमों में भी दखल की गुंजाइश निकल आएगी, और अगर विधेयक लटक जाए, जिसकी ज्यादा संभावना दिखती है, तो खुद को पीड़ित-पक्ष की तरह पेश करने का नया मुद््दा मिल जाएगा? यों भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है। ऐसे में वह कितना मजबूत लोकपाल बना सकती है? लेकिन अन्य राज्यों में लोकायुक्त इतने कमजोर क्यों हैं कि उनकी भूमिका महज सिफारिशी होकर रह गई है!