दुनिया का तापमान बढ़ते जाने के मसले पर चिंताएं नई नहीं हैं। इसके हल के लिए वैश्विक स्तर पर विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और अलग-अलग देशों की सरकारों के नुमाइंदों के सम्मेलन होते रहे हैं, जिनमें इसके कारणों की पहचान कर उन्हें दूर करने के लिए प्रस्ताव पारित किए जाते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि बीते कई दशकों से लगातार बढ़ती चिंता के बीच यह समस्या भी गहराती जा रही है।
आखिर क्या कारण है कि हर अगले वर्ष तापमान में बढ़ोतरी को लेकर नए आकलन और उनकी वजह से समूची धरती पर मंडराते खतरे के संकेत सामने आ रहे हैं, लेकिन इसके हल की ओर अब तक कुछ ठोस होता हुआ नहीं दिख रहा। गौरतलब है कि गुरुवार को यूरोपीय संघ की ‘कापरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस’ यानी सीसीसीएस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि इस वर्ष सितंबर अब तक का सबसे गर्म महीना रहा है। इसी वर्ष के शुरुआती नौ महीनों में पूरी दुनिया का तापमान औसत से 0.52 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। मसला केवल महीने तक सीमित नहीं है। रपट के मुताबिक, सन 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज होने वाला है।
सवाल है कि अगर दुनिया भर में इस मसले पर अद्यतन जानकारियां और अध्ययनों की रपट सामने हैं और उसका असर लगातार बढ़ता साफ-साफ महसूस किया जा रहा है, तो आखिर इस समस्या को दूर करने को लेकर गंभीरता क्यों नहीं दिख रही! इस पर सोचना इसलिए भी जरूरी है कि यह कोई मौजूदा दौर की मुश्किल नहीं है कि थोड़ा-बहुत नुकसान उठा कर इसके निकल जाने का इंतजार कर लिया जाए, बल्कि इससे आने वाला समूचा वक्त प्रभावित होने वाला है, कई-कई पीढ़ियों को इसका खमियाजा उठाना पड़ सकता है।
हालांकि इसके खतरे अभी ही वातावरण से लेकर आम जनजीवन पर खतरनाक असर डालने लगे हैं। मसलन, मौसम के चक्र के मुताबिक आमतौर पर सितंबर के महीने में गरमी काफी हद तक नरम पड़नी शुरू हो जाती है। लेकिन अगर सीसीसीएस जैसी संस्था अपने आकलन में न केवल सितंबर महीने को, बल्कि इस पूरे वर्ष के ही सबसे गर्म होने का दावा कर रही है तो अब तत्काल इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि पिछले कई दशकों के दौरान ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या धरती का तापमान बढ़ते जाने के कारणों की पहचान पर बात होने के बावजूद इसके हल के उपायों के प्रति लापरवाही और अनदेखी का नतीजा क्या हो सकता है।
बढ़ते तापमान के खतरे के बीच इन तथ्यों पर बात होती रही है कि स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के बजाय जीवाश्म ईंधनों को जलाने की वजह से जलवायु में बदलाव आ रहा है और इसी कारण मौसम में तीव्र उथल-पुथल देखी जा रही है। अलग-अलग देशों में लू और चक्रवाती तूफान का स्वरूप ज्यादा भयावह होने लगा है और इनकी आवृत्ति भी बढ़ गई है।
इसके अलावा, भारी बारिश से विनाशकारी बाढ़ और जंगलों में आग लगने की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई है। मुश्किल यह है तापमान में बढ़ोतरी को खतरनाक बताते हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उसके हल के लिए सुझाए गए उपायों पर सहमति जताई जाती है, लेकिन इस पर अमल को लेकर गंभीरता नहीं दिखती।
खासतौर पर कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन को लेकर अमीर और विकसित देश शायद ही कभी पर्याप्त स्तर तक संवेदनशील दिखते हैं। जबकि गरीब और विकासशील देशों पर इसे कम करने की जिम्मेदारी थोप दी जाती है। सवाल है कि ऐसे दोहरे मानदंडों पर आधारित चिंता का क्या हासिल होने वाला है? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि ऐसे रवैये की वजह से न केवल मौजूदा दुनिया खतरे में है, बल्कि इससे आने वाली पीढ़ियों के सामने भी गंभीर चुनौतियां मुंह बाए खड़ी रहेंगी।