तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने परिसीमन के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर यह साफ कर दिया है कि इस मसले को अब और टालना संभव नहीं होगा। हिंदी भाषा को लेकर उनकी टिप्पणियां भी विवादित रही हैं। साफ है कि वे इन दोनों ही मुद्दों पर दक्षिणी राज्यों को एक पाले में करने की राजनीति कर रहे हैं, जिसे देश के संघीय ढांचे के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। परिसीमन के मुद्दे पर दक्षिणी राज्य चिंतित हैं, लेकिन तमिलनाडु अत्यधिक मुखर है।
स्टालिन चाहते हैं कि वर्ष 1971 की जनगणना को 2026 से तीस वर्षों के लिए लोकसभा सीट के परिसीमन का आधार बनाया जाए। मगर उन्हें समझना चाहिए कि परिसीमन दरअसल एक संवैधानिक जरूरत है, जिसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व और आबादी में हो रही बढ़ोतरी का अनुपात ठीक बना रहे। यह कोई नई प्रक्रिया नहीं है। अब तक तीन बार हुए परिसीमन में राज्यों में आबादी के हिसाब से न्यायसंगत रूप से सीटों की संख्या निर्धारित हुई।
अगले साल तमिलनाडु में हैं विधानसभा चुनाव
दरअसल, अगले साल तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव है। यही वजह है कि क्षेत्रीय भावनाएं सुलगाने की मुहिम में स्टालिन जुटे हुए हैं। स्टालिन ने हाल में नवयुगलों को जल्दी परिवार की योजना बनाने का सुझाव दिया और इसे परिसीमन के मुद्दे से जोड़ दिया। जहां तक भाषा का सवाल है, तमिलनाडु में शुरू से तीन भाषा नीति का विरोध होता रहा है। तीन भाषा नीति का हालिया विरोध ऐसे वक्त में हो रहा है, जब दक्षिण के राज्य परिसीमन को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं।
उन्हें डर है कि परिसीमन होने पर लोकसभा में दक्षिण के राज्यों की सीटें कम हो सकती हैं, जिससे केंद्र में उनकी आवाज कमजोर हो जाएगी। ऐसे में परिसीमन और हिंदी का विरोध एक साथ चल रहा है और दोनों एक-दूसरे को मजबूती दे रहे हैं। दरअसल, परिसीमन के बाद लोकसभा और विधानसभा की सीटों में बदलाव होगा।
केंद्र से बातचीत के जरिए राह निकालने की करनी चाहिए कोशिश
जनसंख्या के लिहाज से उत्तर भारत का पलड़ा भारी है। दक्षिण भारत के राज्यों को यही डर है कि जनसंख्या नियंत्रण पर बेहतर काम का उन्हें नुकसान न उठाना पड़े। क्षेत्रीयता को हवा देना स्टालिन को राजनीति की आसान डगर लग सकती है, लेकिन उन्हें देश के संघीय ढांचे के बारे में सोचना चाहिए और इस मुद्दे पर केंद्र से बातचीत के जरिए राह निकालने की कोशिश करनी चाहिए।