बिहार में मानसून की शुरुआत में ही एक के बाद एक पुलों के ध्वस्त होने की घटनाओं के बाद राज्य सरकार हरकत में आई और जल संसाधन तथा ग्रामीण कार्य विभाग के पंद्रह अभियंताओं को निलंबित कर दिया। गौरतलब है कि राज्य में बीते कुछ दिनों के भीतर विभिन्न इलाकों में नए-पुराने दस पुल ढहने की खबर आ चुकी है। हैरानी की बात है कि ध्वस्त पुलों में कुछ निर्माणाधीन थे। सवाल है कि बिहार की मौजूदा सरकार अपने जिस सुशासन के दावे अक्सर करती रहती है, उसमें लगातार पुलों के ढहने को कैसे देखा जाए। कुछ वर्ष पहले बने या फिर निर्माणाधीन पुल अगर इस तरह गिर गए, तो इसके पीछे घोर लापरवाही और भ्रष्टाचार के अलावा और क्या वजह हो सकती है? विडंबना है कि जहां पुलों के लगातार ढहने की जांच कर जरूरी कार्रवाई की जाती, बाकी पुलों के रखरखाव और नए पुलों के निर्माण में भ्रष्टाचार खत्म करके उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती, वहीं इस मसले पर नाहक सियासी बयानबाजियां शुरू हो गईं। ढह गए पुलों की जिम्मेदारी पर सियासत क्या इस समस्या का समाधान है?
दरअसल, भ्रष्टाचार के ये पुल सुशासन के दावों की हकीकत बता रहे हैं। लगातार पुलों के गिरने की घटनाओं पर कठघरे में घिरी सरकार का कहना है कि उसके अधीन निर्मित जो पुल गिरे हैं, उनका जिम्मा संभालने वाले ठेकेदारों को काली सूची में डालने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। सवाल है कि जब इन पुलों का निर्माण हो रहा था तो संबंधित विभाग ने इसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जरूरत क्यों नहीं समझी। इस बात की क्या गारंटी है कि कोई दूसरा ठेकेदार पुल के निर्माण की गुणवत्ता से समझौता नहीं करेगा? पुलों के गिरने की घटनाओं को लेकर गठित जांच समिति ने अपनी शुरुआती रपट में कहा है कि विभागीय अधिकारियों ने निर्माण कार्य की निगरानी करने और बाद में पुलों की देखरेख में लापरवाही बरती। इसी रपट के आधार पर पंद्रह अभियंताओं को निलंबित किया गया है। मगर क्या सिर्फ संबंधित अधिकारियों को निलंबित कर देने से इस की समस्या का समाधान हो जाएगा? भ्रष्टाचार के जिस जाल की वजह से ऐसी समस्याएं पैदा होती हैं, उस पर प्रहार किए बिना इसका हल कैसे निकलेगा?