अमेरिका की ओर से विभिन्न देशों पर शुल्क लगाने के फैसले का शुरू से ही विरोध होता रहा है। अब ब्राजील में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में भी इसकी कड़ी आलोचना के बाद अमेरिका की भौहें तन गईं और उसने इसे ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीति करार दिया। साथ ही चेतावनी दी कि जो देश अमेरिका के खिलाफ इस तरह की नीतियों का समर्थन करेगा, उसे दस फीसद अतिरिक्त शुल्क का सामना करना पड़ेगा। इससे यह सवाल और गहरा हो जाता है कि क्या अमेरिका वास्तव में ब्रिक्स देशों से खुद को असहज महसूस करता है!
क्या आने वाले दिनों में अमेरिका और ब्रिक्स देशों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है? हालांकि, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने साफ किया है कि ब्रिक्स किसी टकराव के लिए नहीं है और न ही इसका मकसद किसी देश की मुखालफत करना है, बल्कि यह उभरते बाजारों और विकासशील देशों के बीच सहयोग के लिए एक महत्त्वपूर्ण मंच है।
ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में अमेरिकी शुल्क का विरोध किया गया
दरअसल, अमेरिका ने इस साल अप्रैल में चीन और भारत समेत विभिन्न देशों पर शुल्क का एलान किया था। हालांकि बाद में इसे यह कहकर नब्बे दिन के लिए टाल दिया गया कि कुछ देश इस मामले में परस्पर सहमति पर विचार करने के इच्छुक हैं। शुल्क निलंबन की इस अवधि को अब कुछ दिन और बढ़ा दिया गया है। जिन देशों पर यह शुल्क प्रस्तावित है, वे शुरू से इसका विरोध कर रहे हैं। चीन ने तो अमेरिका पर जवाबी शुल्क लगाने का भी एलान कर दिया था। इसी कड़ी में अब ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में अमेरिकी शुल्क का विरोध किया गया। यह निश्चित रूप से एकजुट होकर अमेरिका पर शुल्क का फैसला वापस लेने का दबाव बनाने की रणनीति हो सकती है।
हालांकि इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की गैरमौजूदगी ब्रिक्स की एकजुटता पर ही सवाल खड़े करती है, क्योंकि कूटनीतिक वक्तव्यों के साथ-साथ धरातल पर एकजुटता दिखनी भी चाहिए, ताकि वैश्विक स्तर पर संयुक्त प्रयासों के महत्त्व को समझा जा सके। ब्रिक्स की स्थापना ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा की गई थी। लेकिन इस समूह का पिछले वर्ष विस्तार हुआ और इसमें इंडोनेशिया, ईरान, मिस्र, इथियोपिया व संयुक्त अरब अमीरात को शामिल किया गया।
नए सदस्य देशों के अलावा, इस समूह में दस रणनीतिक साझेदार देश भी शामिल हैं। असल में ब्रिक्स देशों की वैश्विक जीडीपी में हिस्सेदारी 28-30 फीसद है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के इस समूह को पश्चिमी देशों के लिए संभावित चुनौती के रूप में देखा जाने लगा है। ब्रिक्स डालर पर निर्भरता कम करने के लिए अपनी एक स्वतंत्र एवं साझा मुद्रा प्रणाली की योजना पर विचार कर रहा है। ब्रिक्स को लेकर अमेरिका के पूर्वाग्रह का यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है।
अमेरिका का मानना है कि अगर ब्रिक्स देश भविष्य में किसी साझा मुद्रा में आपसी लेनदेन करने लगे तो इससे डालर का वर्चस्व खतरे में पड़ सकता है। जाहिर है, अमेरिका ऐसी किसी भी कोशिश को नाकाम करने के लिए हर तरह की रणनीति अपनाएगा, जिससे उसके वैश्विक हित और वर्चस्व को चुनौती की संभावना होगी। बहरहाल, ब्रिक्स देशों की इस राय के अपने आधार हैं कि अमेरिकी शुल्क विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप नहीं है। ऐसे प्रतिबंधों से वैश्विक व्यापार में कमी आने, आपूर्ति शृंखलाओं के बाधित होने और बाजार में अनिश्चितता पैदा होने का खतरा है।