पिछले हफ्ते पांच नए पार्टी प्रदेशाध्यक्षों के नामों का एलान कर भाजपा ने जहां सांगठनिक स्तर पर चल रही बड़ी अनिश्चितता दूर कर दी, वहीं यह भी जता दिया कि इन राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब और कर्नाटक में उसकी रणनीति क्या है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, तेलंगाना और अरुणाचल प्रदेश के नए अध्यक्षों की नियुक्ति में पार्टी ने दो बातों को अहमियत दी है। एक, लंबे समय से आरएसएस से जुड़ा होना, और दूसरा, पिछड़े वर्ग की सामाजिक पृष्ठभूमि। नए नामों में दो ओबीसी हैं और एक दलित। उत्तर प्रदेश में पार्टी की कमान, जो लक्ष्मीकांत वाजपेयी के हाथ में थी, अब केशव प्रसाद मौर्य के पास होगी। फूलपुर से सांसद चुने गए मौर्य एक ओबीसी जाति से ताल्लुक रखते हैं। पिछले डेढ़ दशक से उत्तर प्रदेश की राजनीति समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की प्रतिद्वंद्विता में बंटी रही है।

केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश में अपना चेहरा बनाने के पीछे भाजपा का मकसद विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सपा और बसपा के मुकाबले पिछड़े वर्ग को आकर्षित करना है। उसे उम्मीद होगी कि गैर-यादव पिछड़ा आधार में सेंध लगाने में मौर्य मददगार साबित होंगे। फिर, आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद से मौर्य का जुड़ाव हिंदुत्व के एजेंडे को भी तेज करने में सहायक हो सकता है। पंजाब में पार्टी ने केंद्रीय राज्यमंत्री विजय सांपला को कमान सौंपी है तो कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को। तेलंगाना में विधायक के. लक्ष्मन और अरुणाचल प्रदेश में पूर्व सांसद तापिर गाव पार्टी के नए अध्यक्ष बनाए गए हैं। उत्तर प्रदेश की तरह पंजाब में भी दस महीनों बाद चुनाव होना है। सांपला दलित समुदाय से आते हैं और पंजाब की आबादी में दलितों का अनुपात खासा है, करीब तीस फीसद। साफ है कि सांपला को पंजाब भाजपा का चेहरा बनाने के पीछे क्या वजह रही होगी।

लेकिन पंजाब में राज्य सरकार के प्रति असंतोष काफी व्यापक है, और सरकार में साझेदार होने के कारण भाजपा अपनी जिम्मेवारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। क्या सांपला के तौर पर दलित कार्ड खेल कर भाजपा ने राज्य सरकार में साझेदार होने की अपनी जवाबदेही से ध्यान बटाने की भी कोशिश की है? लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद््दा बनाने वाली पार्टी ने कर्नाटक में फिर से बीएस येदियुरप्पा को अपनी बागडोर सौंप दी है। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा था। फिर उन्होंने अलग होकर कर्नाटक जनता पक्ष नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली थी। लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले भाजपा उनकी वापसी के लिए राजी हो गई, क्योंकि लिंगायतों में उनका खासा आधार है।

कर्नाटक में लिंगायत सबसे ज्यादा संख्या वाली जाति है और उसकी पसंद-नापसंद राज्य की राजनीति में बहुत मायने रखती रही है। नए नामों से जाहिर है कि भाजपा ने संबंधित राज्यों में चुनाव जीतने के समीकरण को ही सबसे ज्यादा तरजीह दी है। ऐसा लगता है कि छवि तथा अनुशासन के तकाजे उसके लिए गौण हो गए हैं। केशव प्रसाद मौर्य के खिलाफ कई संगीन आपराधिक आरोपों में मामले लंबित हैं। येदियुरप्पा का दामन कैसा है, बताने की जरूरत नहीं। मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद जिन्हें पार्टी में टिके रहना गवारा नहीं था और जिन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली थी, उन्हें भाजपा फिर पुरस्कृत करने को तैयार हो गई। वोट बैंक की राजनीति को कोसती आई भाजपा क्या खुद उसी राह पर नहीं चल रही है?