भाजपा में किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि बिहार में पार्टी की ऐसी जबर्दस्त पराजय हो सकती है। इसलिए पार्टी नेताओं को हार को पचाने में वक्त लगेगा। मगर नतीजों पर पार्टी का जैसा रुख सामने आया है कि उससे नहीं लगता कि हार की कोई जवाबदेही तय होगी। कोई नैतिक रूप से भी अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखता। चुनाव परिणाम आते ही भाजपा में और साथ ही राजग में भी आपसी खींचतान तेज हो गई। इस पृष्ठभूमि में भाजपा के संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई तो माना जा रहा था कि हार के सारे कारण चिह्नित किए जाएंगे। लेकिन संसदीय बोर्ड ने किसी को जिम्मेवार नहीं माना है तथा उन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी, जिनके बयानों को हार के लिए कसूरवार माना जा रहा है।

दरअसल, इस मामले में भाजपा की समस्या गहरी है। अगर सिर्फ स्थानीय स्तर के कुछ कार्यकर्ताओं को सजा देने की बात होती तो शायद आसानी से तय हो जाती। मगर जहां शीर्षस्थ नेताओं की गलतियों पर अंगुलियां उठ रही हों, वहां भलाई इसी में है कि हार का ठीकरा किसी पर भी न फूटे। लिहाजा, हार की सामूहिक जिम्मेदारी के नाम पर वास्तव में आधिकारिक रूप से चुप्पी साध ली गई है। मगर अंदरखाने आरोप-प्रत्यारोप पर विराम अभी शायद न लग पाए। दिल्ली के बाद बिहार चुनाव का दंश पार्टी के लिए बहुत गहरा है और वह इतनी जल्दी इसे भुला नहीं पाएगी। एक तो राजग की हार बहुत बड़े अंतर से हुई है, जबकि डेढ़ साल पहले ही लोकसभा चुनावों में उसे शानदार सफलता मिली थी। दूसरे, अगले अठारह महीनों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, और पार्टी को अंदेशा है कि कहीं बिहार के नतीजों का असर अन्य राज्यों पर भी न पड़े।

भाजपा का यह तर्क अपनी जगह सही है कि लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) अलग-अलग लड़े थे, जबकि इस बार उन्होंने गठजोड़ कर लिया। पर महागठबंधन की शानदार कामयाबी के पीछे कुछ और भी वजहें हैं। मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर नीतीश कुमार की कोई काट भाजपा के पास नहीं थी। भाजपा ने अपने को पूरी तरह मोदी पर आश्रित कर रखा था और उन्हीं को आगे करके चुनाव लड़ रही थी, जबकि यह चुनाव विधानसभा का था। अब आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को सोचना होगा कि मोदी पर निर्भरता की क्या सीमा हो। अपने चुनाव एजेंडे के बारे में भी पार्टी को स्पष्ट होना होगा। बिहार में शुरू में भाजपा ने अपने को विकास के मुद्दे पर केंद्रित रखा था।

अगर वह इस पर टिकी रहती तो उसे फायदा होता, या कम-से-कम ऐसा बुरा हश्र न होता। मगर जल्दी ही उसने पटरी बदल दी और उसके नेताओं के ऐसे-ऐसे बयान आए जो प्रतिद्वंद्वी खेमे के लिए फायदेमंद साबित हुए। फिर, भाजपा ने अपने गठबंधन से जिस सामाजिक समीकरण का हिसाब बिठाया था, वह खोखला निकला। महागठबंधन को दलितों और महादलितों के भी काफी वोट मिले। सबसे अनुशासित होने का दम भरने वाली भाजपा को अपने बागी उम्मीदवारों से सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा। फिर भी, उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया से लेकर पांच चरणों के चुनाव प्रचार तक, कुछ भी गंभीर समीक्षा का विषय नहीं बन सका। ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि पार्टी ने बिहार चुनाव से कुछ सबक लिया होगा!