बिहार में सत्ता का संग्राम अब फिर अपने एक नए मुकाम पर पहुंच गया है। विधानसभा में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राजग ने विश्वास मत हासिल कर लिया। एक सौ उनतीस विधायकों ने उसके पक्ष में मत दिया, जबकि विपक्ष ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। इस तरह नीतीश कुमार अब फिर से भाजपा और अन्य कुछ दलों के सहयोग से नई सरकार चलाएंगे। मगर इस बीच पिछले कुछ दिनों में सत्ता को लेकर जिस तरह की उठापठक, खींचतान और उथल-पुथल हुई, उससे यही जाहिर हुआ कि राजनीति में अब सिद्धांत और नैतिकता की अहमियत लगभग नहीं रह गई है।

नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ जाना बेहतर समझा

गौरतलब है कि पिछले महीने तक नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल के साथ बने गठबंधन की सरकार चला रहे थे, मगर अचानक उन्हें लगा कि पुराने सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के साथ जाना ज्यादा बेहतर है। अब विधायकों की संख्या के समीकरण के मुताबिक भाजपा और राजग में शामिल अन्य दलों के सहयोग से उन्हें विधानसभा में नई सरकार चलाने के लिए पर्याप्त बहुमत मिल गया है। वहीं टक्कर देने की गुंजाइश के बावजूद राजद और उसके सहयोगी दलों ने विश्वासमत में हिस्सा न लेना ही बेहतर समझा।

हालांकि राजद नेता तेजस्वी यादव को अंदाजा हो गया था कि उनके पास सरकार पलटने के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं है। अब वे नीतीश कुमार के बार-बार पाला बदलने और सैद्धांतिक अस्थिरता को मुद्दा बना रहे हैं, तो नीतीश विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के रुख का हवाला दे रहे हैं।

सवाल है कि राजनीति की बिसात पर सत्ता के दांवपेच में उलझे नेताओं और दलों की बदलती निष्ठा के बीच वह आम जनता क्या करे, जो किसी विचारधारा, सिद्धांत, मुद्दे और नेतृत्व के प्रभाव में अपना समर्थन जाहिर करती है।

पाला बदलने के लिए सभी दलों के अपने-अपने तर्क होते हैं और सभी को यही लगता है कि ईमानदारी की कसौटी पर सबसे खरे वही हैं। विडंबना है कि पार्टियां सत्ता पर काबिज होने या उसका हिस्सेदार बनने के लिए सिद्धांत और नैतिकता की व्याख्या अपनी सुविधा के मुताबिक करके उसे सही घोषित कर देती हैं, मगर आम जनता के बीच न केवल इसे लेकर भ्रम और दिशाहीनता की स्थिति पैदा होती, बल्कि कई बार वह खुद को लाचार और ठगा हुआ महसूस करती है।