इसमें दोराय नहीं कि किसी भी चुनाव के दौरान स्वच्छ मतदान सुनिश्चित कराना निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है और इसके लिए समय-समय पर मतदाता सूची को दुरुस्त करने के मकसद से उसे जरूरी कदम उठाने पड़ते हैं। मगर बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के फैसले से लेकर आयोग की प्रक्रिया पर जितने सवाल उठे, उसने उसकी मंशा को कठघरे में खड़ा किया। यह अपने आप में एक विचित्र फैसला था कि मतदाता सूची में कायम रहने के लिए आयोग ने लोगों के सामने जरूरी दस्तावेज पेश करने के जो विकल्प रखे, उनमें आधार कार्ड नहीं था।
यह दलील दी गई कि आधार कार्ड व्यक्ति की नागरिकता का पहचान नहीं है, इसलिए इसे स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में जगह नहीं मिलेगी। नतीजा यह हुआ कि जिनके पास अपने आपको बिहार का निवासी साबित करने के लिए मुख्य दस्तावेज आधार ही था, वैसे तमाम लोगों के लिए मतदाता सूची में अपना नाम बनाए रखना मुश्किल हो गया। जबकि निर्वाचन आयोग ने कुछ ऐसे प्रमाण पत्रों को स्वीकार्य दस्तावेज बताया, जिन्हें बनाने के लिए आधार की जरूरत पड़ती है।
ग्यारह सूचीबद्ध दस्तावेजों में नहीं था आधार कार्ड
गौरतलब है कि शुरू से इस संबंध में लचर दलील दे रहे निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अब आखिरकार आधार को एक स्वीकार्य दस्तावेज मान लिया है। आयोग ने बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को कहा है कि मतदाताओं की पहचान स्थापित करने के लिए आधार कार्ड को एक अतिरिक्त दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए। इसके तहत सूचीबद्ध ग्यारह दस्तावेजों के अलावा आधार कार्ड को बारहवें दस्तावेज के रूप में माना जाएगा।
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सवाल है कि अगर अब जाकर आयोग को अपना रुख बदलने का कारण इस संबंध में बने नियम-कायदे हैं, तो आयोग के इससे इनकार करने की क्या वजहें थीं। अगर जुलाई में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के शुरूआती दौर में ही बाकी दस्तावेजों के साथ-साथ आधार कार्ड को भी स्वीकार्य माना जाता तो क्या इस समूचे मसले पर खड़े हुए इतने बड़े विवाद से नहीं बचा जा सकता था? जिन लाखों लोगों के नाम मसविदा मतदाता सूची से बाहर करने की नौबत आई थी, उसका कारण क्या निर्वाचन आयोग का रवैया नहीं था?
केवल पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र को नागरिकता साबित करने के लिए माना जाता है जरूरी दस्तावेज
गौरतलब है कि इस मुद्दे पर आयोग के अड़ियल रुख की वजह से बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के दौरान आधार को छोड़ कर जिन ग्यारह दस्तावेजों को पहचान स्थापित करने के लिए स्वीकार्य बताया गया, उनमें से केवल पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र को नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी दस्तावेज के तौर पर माना जाता है। सवाल है कि बाकी के नौ अन्य दस्तावेजों के बूते अगर मतदाता की पहचान की जा सकती है, तो आधार कार्ड के सत्यापन से भी किसी के पात्र-अपात्र होने के बारे में भी पता क्यों नहीं लगाया जा सकता?
विडंबना यह है कि इस मसले पर अब तक निर्वाचन आयोग ने जिस तरह की जिद ठान रखी थी, उसकी वजह से बहुत सारे लोगों के सामने अपनी पहचान तक साबित करने का संकट खड़ा हो गया था। पहचान और नागरिकता से लेकर अन्य जरूरी दस्तावेज बनवाने तथा उसे सुरक्षित रखने को लेकर गरीब तबके के लोगों की मुश्किलें जगजाहिर रही हैं। ऐसे में पहचान के लिए सत्यापन की प्रणाली को ज्यादा समावेशी और व्यावहारिक बनाने की जरूरत है। इसके अलावा, लोकतंत्र के जीवन के लिए सभी पात्र मतदाताओं के मतदान के मौलिक अधिकार को सुरक्षित और सुनिश्चित करना निर्वाचन आयोग की ही जिम्मेदारी है।