लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के हाथ मिला लेने से बिहार में भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (एकी) का गठजोड़ निश्चय ही बिहार की चुनावी संभावनाओं को गहरे रूप से प्रभावित करेगा। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में राजद और जद (एकी) को मिला कर राज्य की चालीस में से केवल छह सीटें मिल पाई थीं। पर लोकसभा चुनावों के कुछ महीनों बाद हुए विधानसभा के उपचुनावों में दोनों पार्टियों ने साझे उम्मीदवार उतारे तो परिणाम उनका हौसला बढ़ाने वाला आया।
इन उपचुनावों की दस में से केवल चार सीटें भाजपा को मिल पार्इं। यह नतीजा इस बात का संकेत था कि अगर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ रहें तो क्या गुल खिला सकते हैं। लेकिन दो प्रमुख पार्टियों के बीच तालमेल कभी आसान नहीं होता। सीटों के बंटवारे से लेकर नेतृत्व की दावेदारी तक, उनके सामने अनेक टेढ़े सवाल रहते हैं। राजद और जद (एकी) के बीच सीटों के बंटवारे का मसला एक समिति सुलझाएगी, जिसमें दोनों पार्टियों के तीन-तीन प्रतिनिधि होंगे।
ना-ना करते आखिरकार नीतीश को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने के लिए लालू प्रसाद राजी हो गए हैं। जाहिर है कि इस गठबंधन का चुनावी चेहरा नीतीश होंगे। इससे भाजपा की परेशानी बढ़ सकती है। मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने की रणनीति भाजपा अनेक राज्यों में अपना चुकी है, और दिल्ली को छोड़ दें तो, इसमें उसे कामयाबी भी मिली।
लोकसभा चुनाव में तो उसका सारा प्रचार-अभियान पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर ही केंद्रित रहा। मगर बिहार में भाजपा इससे बचना चाहती है। या तो उसके पास नीतीश के मुकाबले का कोई कद््दावर नेता नहीं है, या उसे लगता है कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तय करने से चुनाव के पहले ही बिहार में पार्टी धड़ेबाजी में फंस जाएगी। ऐसे में, हो सकता है भाजपा बिहार में अपना प्रचार अभियान मोदी पर ही केंद्रित करे।
मगर इसके अपने जोखिम हैं। अगर बिहार में भाजपा की नैया पार नहीं लगी, तो मोदी की लोकप्रियता पर सवाल उठेंगे। नीतीश को लेकर भाजपा की एक और दिक्कत है। नीतीश के कार्यकाल में अधिकांश समय भाजपा साझेदार रही। इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश के काम की आलोचना वह किस मुंह से करेगी? फिर भाजपा का सामना अब एक बड़े जनाधार से होगा। अगर लालू और नीतीश अलग-अलग रहते, तो पिछड़ों के वोट भी बंटते और अल्पसंख्यकों के भी। मगर अब भाजपा को इन वोटों की एकजुटता का भय सताने लगा है। उसने खिसियाहट में इसे मजबूरी का गठबंधन कहा है। नीतीश और लालू तो समान वैचारिक पृष्ठभूमि के हैं, पर पीडीपी के साथ भाजपा का गठबंधन कैसा है?
राजद और जद (एकी) के गठजोड़ में कांग्रेस के भी सम्मिलित होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। क्या पता वाम दलों से भी किसी स्तर पर तालमेल बन जाए। पर सबसे अहम लालू और नीतीश का साथ आना है। लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू, एक के बाद एक जीत का परचम लहराती भाजपा को दिल्ली में पराजय का स्वाद चखना पड़ा, वह भी इस तरह कि सत्तर में केवल तीन सीटें उसे मिल सकीं।
दिल्ली के चुनाव ने भाजपा को जो झटका दिया उससे उबरने का मौका बिहार है। लेकिन अब बिहार में मुकाबला उसके लिए आसान नहीं रह गया है। बिहार का असर आगे बंगाल पर भी पड़ेगा और उत्तर प्रदेश पर भी। लिहाजा, सबके लिए बिहार की अहमियत साफ है। अगर जनता परिवार बिहार की बाजी जीतने से रह गया, तो भाजपा फिर से अपराजेय नजर आएगी। अगर जनता परिवार ने बिहार की चुनौती से पार पा लिया, तो वह आगे चल कर भाजपा-विरोधी राजनीति की धुरी बन सकता है।