उग्र आंदोलन से घबराए भाजपा नेतृत्व ने दो फैसले किए। एक यह कि हरियाणा में जाटों को आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार अगले विधानसभा सत्र में विधेयक लाएगी। दूसरे, केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी आरक्षण की जाटों की मांग पर विचार करने के लिए केंद्रीय मंत्री वेंकया नायडू की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी गई है। दोनों घोषणाएं हिंसक शक्ल अख्तियार कर चुके आंदोलन के आगे सरकार के झुकने का ही संकेत देती हैं।

लिहाजा, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आरक्षण का निर्धारण राजनीतिक दबाव पैदा कर सकने की ताकत से होगा, या मानकों के हिसाब से? जाटों को आरक्षण का हकदार बनाने के प्रयास को सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है। गौरतलब है कि 2014 में यूपीए सरकार ने जाटों को केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी आरक्षण देने का फैसला किया था। इसके राजनीतिक कोण को इसी से समझा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा से महज एक दिन पहले इसकी अधिसूचना जारी हुई थी। तमाम समाजवैज्ञानिकों तथा कानूनविदों ने इस पर हैरानी जताई थी। न्यायिक समीक्षा में भी वह निर्णय नहीं टिक सका।

साल भर बाद सर्वोच्च अदालत ने अधिसूचना खारिज कर दी, यह कहते हुए कि जाट पिछड़े वर्ग में नहीं माने जा सकते। अदालत ने यह सवाल भी पूछा था कि एक नए समुदाय को लाभार्थी बनाने का फैसला करने से पहले राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की राय क्यों नहीं ली गई? जो गलती यूपीए सरकार ने की थी, क्या वही राजग सरकार भी करने जा रही है? सितंबर 1992 में ही राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने कह दिया था कि जाट पिछड़े वर्ग में नहीं आते। इसके अलावा, हरियाणा में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग, दो बार, 1995 में और 2011 में, जाटों के लिए ओबीसी आरक्षण की मांग को अमान्य कर चुका है।

जाट आरक्षण के लिए यूपीए सरकार की अधिसूचना को रद््द करते हुए सर्वोच्च अदालत ने यह सवाल भी उठाया था कि ओबीसी की सूची में लाभार्थी समुदायों की संख्या जरूर बढ़ी है, पर किसी को उससे बाहर क्यों नहीं किया गया? क्या सूची में शामिल समुदायों में से कोई पिछड़ेपन से बाहर नहीं आ सका है? फिर, ओबीसी आरक्षण शुरू होने के समय से देश में हुई प्रगति के बारे में हम क्या कहेंगे? दरअसल, जरूरत ओबीसी का दायरा बढ़ाने की नहीं, उन समुदायों के असंतोष को समझने की है जो पहले कभी अपने को पिछड़ा नहीं मानते थे, पर आज आरक्षण की खातिर पिछड़े वर्ग में शामिल होने को बेचैन हैं। जाटों से पहले, पिछले साल गुजरात में पाटीदार और पिछले महीने आंध्र प्रदेश में कापु समुदाय के लोग ओबीसी आरक्षण के लिए उग्र आंदोलन कर चुके हैं।

इसी तरह गुर्जर, खुद को ओबीसी से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर कई बार सड़कों पर उतर चुके हैं। चूंकि ये बड़ी संख्या वाली जातियां हैं और अपने-अपने इलाकों में चुनाव का रुख बदलने की ताकत रखती हैं, इसलिए राजनीतिक दल उनकी मांग को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। पर इन जातियों के असंतोष को आरक्षण की तरफ मोड़ने के बजाय उसकी तह में जाने की जरूरत है। खेती-किसानी से जुड़े रहे बेहतर माली हालत वाले समुदाय भी आज क्षुब्ध हैं, क्योंकि खेती घाटे का धंधा बनती गई है और इसमें वे अपना भविष्य नहीं देख पाते। हमारी राजनीति की समस्या यह है कि उसमें वास्तविक समस्याओं से जूझने के बजाय भावनात्मक मुद््दों का सहारा लेने और उन्हें तूल देने का रुझान और जोर पकड़ रहा है।