महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध का कोई मामला जब तूल पकड़ते हैं, तब उसे लेकर सवाल उठाने वालों, विरोध प्रदर्शनों का आह्वान करने और उसमें हिस्सा लेने वालों में बहुत सारे नेता और खासतौर पर जनप्रतिनिधि भी मुखर रूप से शामिल होते हैं। मगर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जो जनप्रतिनिधि इस सवाल पर आक्रोशित जनता के साथ खड़े दिखते हैं, वे खुद अपने सहयोगियों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के आरोपों को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं होते। यह छिपा तथ्य नहीं है कि हर चुनाव में ऐसे लोग भी बतौर उम्मीदवार किसी सीट पर अपना दावा पेश करते हैं और उनमें से कई जीत कर जनप्रतिनिधि भी बन जाते हैं, जिन पर गंभीर अपराधों के आरोप होते हैं।
जिस पर खुद आरोप है वह ईमानदारी से कैसे संघर्ष करेगा
अगर किसी जनप्रतिनिधि पर महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध करने या उसमें शामिल होने का आरोप है, तो उससे महिलाओं के हक में ईमानदार लड़ाई की कितनी उम्मीद की जा सकती है! जनता के नुमाइंदे कहे जाने वाले जो लोग खुद गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोपी होते हैं, वे कानून बनाने या बचाने के दायित्व के प्रति कितने गंभीर हो सकते हैं?
यह बेवजह नहीं है कि चुनावी नैतिकता और शुचिता की मांग के बावजूद आज भी अच्छी-खासी संख्या में ऐसे जनप्रतिनिधि हैं, जिन पर गंभीर अपराधों के आरोप हैं। ये मामले जगजाहिर रहे हैं, मगर इसे एक बार फिर एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिसर्च ने जारी किया है, जिसमें पिछले पांच वर्ष में महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों का सामना कर रहे एक सौ इक्यावन सांसदों-विधायकों को चिह्नित किया गया। इनमें सोलह पर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का आरोप है।
सभी आरोपों को सिर्फ राजनीतिक बदला या साजिश बता कर खारिज नहीं किया जा सकता। विडंबना यह है कि ऐसे मामलों में जांच, सुनवाई और फैसला लंबे समय तक टलता रहता है। चुनाव आयोग भी ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने और जीत कर जनप्रतिनिधि के रूप में काम करने को लेकर कोई स्पष्ट रुख तय नहीं कर पाता! ऐसे दागी नुमाइंदों को लेकर नरम रवैया क्या एक बड़ी वजह नहीं है कि महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के खिलाफ कोई ठोस और नतीजा देने वाली व्यवस्था खड़ी नहीं हो पा रही?