जघन्य अपराधों से संबंधित किसी घटना पर आम प्रतिक्रिया कानून-व्यवस्था और कार्रवाई के बिंदु पर केंद्रित होती है। यह माना जाता है कि पुलिस महकमा ऐसा असर पैदा करने में नाकाम रहा है, इसलिए अपराधियों को ऐसा दुस्साहस करने में कोई बाधा पेश नहीं आई। लेकिन जब सबसे सुरक्षित माने जाने वाली जगहों पर भी हत्या जैसे गंभीर अपराध की घटनाएं एक सिलसिले की तरह होने लगें तो यह समूची व्यवस्था पर एक सवालिया निशान की तरह है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित एक अदालत कक्ष में ही वकील के वेश में आए हमलावर ने कुख्यात अपराधी और माफिया मुख्तार अंसारी के एक करीबी संजीव महेश्वरी पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा कर उसकी हत्या कर दी। गोलीबारी में दो पुलिसकर्मियों, एक डेढ़ साल की बच्ची और उसकी मां को भी गोली लगी। उत्तर प्रदेश में हर कुछ दिन बाद सरकार का दावा होता है कि वहां अपराधियों और अपराध पर पूरी तरह काबू पा लिया गया है और आपराधिक तत्त्व खौफ में हैं। लेकिन हकीकत सबसे सामने है।

सवाल है कि किसी कुख्यात अपराधी के मामले पर सुनवाई के दौरान अदालत में किस स्तर की सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम किया गया था कि वहां ऐसी घटना हो गई। हाल के वर्षों में ज्यादातर संवेदनशील जगहों या परिसरों में प्रवेश के पहले जरूरी जांच-पड़ताल की व्यवस्था है, मेटल डिटेक्टर और अन्य आधुनिक यंत्रों के जरिए व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक जांचा जाता है कि कहीं उसके पास कोई अवांछित या घातक हथियार तो नहीं है!

लेकिन हैरानी की बात है कि सिर्फ वकील का वेश बना कर कोई अपराधी न केवल अदालत परिसर में, बल्कि अदालत के कक्ष तक में घुस जाता है और उसके पास मौजूद बंदूक या पिस्तौल जैसे हथियार के बारे में किसी को भनक तक नहीं लगती है। कक्ष में भी लोगों को तब पता चलता है जब गोलीबारी शुरू हो जाती है।

आम अपराधों की प्रकृति और उसके फैलते पांव के मद्देनजर सरकार यह दावा करती है कि उसने सभी जगहों पर उच्च स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम किया है। लेकिन आपराधिक घटनाओं पर काबू पाने के लिहाज से चौकस व्यवस्था के मोर्चे पर सबसे सुरक्षित माने जाने वाली अदालतें ही असुरक्षित और खतरनाक साबित होने लगें तो आम जनता के बीच कैसी धारणा बनेगी!

हालांकि लखनऊ में अदालत परिसर में हत्या इस तरह की कोई अकेली या पहली घटना नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही पिछले कुछ समय के दौरान कई ऐसे वाकये सामने आ चुके हैं, जिनमें आपराधिक गिरोहों ने लक्ष्य बना कर किसी आरोपी पर गोलीबारी की और उसे मौत के घाट उतार दिया तो कभी किसी गवाह पर सरेआम जानलेवा स्तर तक गोलियां चला कर बुरी तरह घायल कर दिया गया।

दिल्ली में रोहिणी और साकेत के अदालत परिसर में सरेआम गोलीबारी की घटना ज्यादा पुरानी नहीं है। सवाल है कि जिस दौर में अपराध पर काबू पाने के लिए सीसीटीवी या आधुनिक तकनीकों की मदद लेने और ऐसी वारदात होने के हालात से मुक्ति दिलाने के दावे किए जा रहे हैं, उसमें किसी संकरी या सन्नाटे वाली जगहों के बजाय सरेआम सड़कों पर या अदालत परिसर तक भी जघन्य अपराधों के पांव कैसे फैलते जा रहे हैं? अदालत परिसर में किसी भी व्यक्ति के प्रवेश करने से पहले जांच की जो व्यवस्था है, उसमें कहां कमी है कि कोई अपराधी घातक हथियार लेकर वकील के वेश में अदालत कक्ष तक में घुस जाता है और हत्या जैसे अपराध को भी आसानी से अंजाम देने में कामयाब हो जाता है।