फरवरी में दिल्ली में आम आदमी पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई। तब से अब तक केंद्र और उपराज्यपाल के साथ इसकी तकरार बराबर चलती रही है। इसके मूल में दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारों का अजीब उलझाव है। जनादेश केजरीवाल को मिला है, पर दिल्ली के पूर्ण राज्य न होने के कारण ज्यादातर अहम मामलों में केंद्र की चलती है। और इस तरह हालत यह है कि उपराज्यपाल की मर्जी के बगैर दिल्ली सरकार का कोई निर्णय शायद ही लागू हो पाए। पर समस्या मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के अधिकारों के बंटवारे की ही नहीं है।
रह-रह कर रस्साकशी शुरू हो जाने की बड़ी वजह यह भी है कि केंद्र और दिल्ली में भिन्न पार्टियों की सरकारें हैं। शीला दीक्षित पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहीं। पर उनके मुख्यमंत्री रहते ज्यादातर समय केंद्र में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी। इसलिए उनके सामने केंद्र से खास शिकवे-शिकायत की स्थिति नहीं रही। पर केजरीवाल का अधिकांश समय केंद्र से और केंद्र के प्रतिनिधि उपराज्यपाल से उलझते बीतता है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग भाजपा ने ही शुरू की थी।
दिल्ली के हर चुनाव में यह उसका मुख्य मुद्दा होता था। अब जब केंद्र में उसकी सरकार है और लोकसभा में उसका पूर्ण बहुमत, तो वह इस मामले में पहल क्यों नहीं करती? क्या भाजपा के लिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग का कोई अर्थ नहीं रह गया है? अगर दिल्ली में भी भाजपा की सरकार होती, तो क्या उपराज्यपाल इसी तरह पग-पग पर अपने विशेष अधिकारों और मुख्यमंत्री की सीमाओं का अहसास कराते चलते? जाहिर है, केंद्र और दिल्ली की तकरार के पीछे संवैधानिक अधिकार क्षेत्र के विवाद के साथ-साथ सियासी गणित भी है।
एक बार फिर दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच ठन गई है। दिल्ली के गृह विभाग के जिन दो सचिवों को केजरीवाल सरकार ने निलंबित कर दिया था उन्हें केंद्र ने बहाल कर दिया है। इन्हीं दो सचिवों के निलंबन के खिलाफ दिल्ली में तैनात दानिक्स यानी दिल्ली, अंडमान एवं निकोबार सिविल सेवा और एजीएमयूटी यानी अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम एवं केंद्रशासित के कोई दो सौ अधिकारी गुरुवार को सामूहिक अवकाश पर रहे। विशेष सचिव (अभियोजन) और विशेष सचिव (कारागार) को दिल्ली सरकार ने इस आधार पर निलंबित किया कि दोनों ने एक कैबिनेट-नोट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। कैबिनेट-नोट सरकारी वकीलों के वेतन में बढ़ोतरी से संबंधित था। हस्ताक्षर न करने के पीछे दलील थी कि यह मामला दिल्ली सरकार के अधीन नहीं आता।
लेकिन उपराज्यपाल की शह न होती, क्या तब भी दोनों अधिकारी यही करते? कई बार केजरीवाल सरकार के रुख के चलते नाहक विवाद पैदा हुआ है, तो कई बार भाजपा के रवैए के चलते। दिल्ली विधानसभा ने जिस लोकायुक्त विधेयक को मंजूरी दी उसमें सीधे केंद्र के अधीन आने वाले अधिकारियों को भी जांच के दायरे में लाने का प्रावधान है। दूसरी ओर, मुख्यमंत्री के अपना सचिव नियुक्त करने पर भी उपराज्यपाल अड़ंगा लगा चुके हैं। अगर दोनों अपनी-अपनी हदों का खयाल रखें और एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करें तो दिल्ली में राजनीतिक प्रकृति के संवैधानिक विवाद बहुत कम किए जा सकते हैं।