दिल्ली सरकार और यहां की पुलिस के बीच टकराव बढ़ता लग रहा है। सोमवार को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी से दिल्ली में बढ़ती आपराधिक घटनाओं से निपटने के उपायों पर बातचीत की। मगर उसके ब्योरों से यही पता चलता है कि दिल्ली में सरकार और पुलिस दो पक्षों के तौर पर काम कर रहे हैं।
बैठक में अरविंद केजरीवाल ने आनंद पर्वत इलाके में एक लड़की की बर्बरता से हुई हत्या के बहाने दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाया। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की दर्ज शिकायतों के साथ इंस्पेक्टरों सहित कुछ पुलिसकर्मियों की सूची मांगी, तो पुलिस आयुक्त ने उनसे पांच सौ मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपए मुआवजा देने की मांग रख दी। बस्सी ने कहा कि वे दिल्ली के मुख्यमंत्री नहीं, उपराज्यपाल और प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह हैं, तो केजरीवाल ने पीड़ितों की सूची प्रधानमंत्री को देने की बात कह दी। जाहिर है, इससे विवाद के सुलझने के बजाय और तीखा होने की स्थिति बन गई।
दिल्ली में पुलिस की संवैधानिक स्थिति के मुताबिक बस्सी की दलील सही हो सकती है। लेकिन अगर दिल्ली सरकार अपने कार्यक्षेत्र में होने वाली आपराधिक घटनाओं और समस्याओं के मद्देनजर यहां की पुलिस से कोई बात करना चाहे तो क्या उसके पास यह अधिकार भी नहीं है! आखिर दिल्ली में होने वाले अपराधों के लिए जनता सरकार को ही जिम्मेदार मानती है और बिना पुलिस की भूमिका के ऐसी घटनाओं से निपटना संभव नहीं है।
दिल्ली पुलिस अगर यहां के मुख्यमंत्री या उनके मंत्रियों की बातों पर टालमटोल का रवैया अख्तियार करती है, तो सरकार के लिए अजीब स्थिति हो जाती है। अरविंद केजरीवाल सरकार के साथ दिल्ली पुलिस का रवैया सहयोग का नहीं देखा जा रहा। ऐसे में अरविंद केजरीवाल ने पुलिस आयुक्त के सामने अपनी सरकार का पक्ष रख कर और फिर प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिख कर बिल्कुल ठीक कदम उठाया है।
ऐसा भी नहीं कि दिल्ली पुलिस को सरकार के अधीन लाने की अरविंद केजरीवाल की मांग अटपटी या नई है। पहले की लगभग सभी सरकारें यह दोहराती रही हैं। जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब उसी पार्टी की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कई बार यह कह कर अपनी लाचारी जताई थी कि पुलिस उनके मातहत नहीं है।
पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन लाने के मांग के विरोध में दो तर्क दिए जाते हैं। पहला कि यह राष्ट्रीय राजधानी है और दूसरे, यहां की पुलिस अगर दिल्ली सरकार के अधीन आ गई तो उसे कई तरह के राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ सकता है। लेकिन यह आशंका कहां नहीं है। सरकारों के भीतर इच्छाशक्ति हो तो व्यवस्था की इस समस्या से निपटना बहुत मुश्किल नहीं है।
सवाल है कि जब सभी दल इस मसले पर एकमत जान पड़ते हैं तो केजरीवाल की मांग कैसे गलत कही जा सकती है। आखिर यह सवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री नहीं तो और कौन उठाएगा? कोई तो ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी, जिससे दिल्ली पुलिस सरकार के प्रति जवाबदेह हो। ऐसा न होने का ही नतीजा है कि दिल्ली पुलिस आयुक्त अपनी जवाबदेही उपराज्यपाल और केंद्र सरकार के प्रति होने की दलील देकर एक तरह से अरविंद केजरीवाल की चिंताओं को दरकिनार कर गए। क्या केंद्र सरकार को नहीं लगता कि दिल्ली सरकार को कानून-व्यवस्था का साझीदार बनाया जाना चाहिए।
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