इस बार रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया है। क्या रिजर्व बैंक ने इसकी जरूरत नहीं समझी, या इसके लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं लगीं? यह आम धारणा है कि इस वक्त अर्थव्यवस्था में सुस्ती का आलम है। विकास दर संभली हुई है, तो इसका श्रेय निजी निवेश को नहीं, बल्कि सरकार के स्तर पर हुए खर्चों को है। ऐसे में क्या रिजर्व बैंक से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह पूंजी प्रवाह बढ़ाने के लिए कदम उठाए? पर रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरों को यथावत रखा है। उसका यह फैसला काफी हद तक अनुमान के अनुरूप है। इसलिए हैरत भरी प्रतिक्रियाएं इस बार ज्यादा नहीं दिखीं।
रिजर्व बैंक ने रेपो दर को 6.75 फीसद और रिवर्स रेपो दर को 7.75 फीसद पर बनाए रखा है। रेपो और रिवर्स रेपो दरों में कोई फेरबदल न करने के पीछे खासकर दो वजह रही होगी। एक तो यह कि महंगाई की दर इस वक्त भले रिजर्व बैंक के लक्ष्य की सीमा में है, पर सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप रिजर्व बैंक को अंदेशा है कि महंगाई बढ़ सकती है। दूसरा कारण यह रहा होगा कि इसी महीने के आखीर में अगले वित्तवर्ष के लिए बजट पेश होना है, और सरकार के सामने अर्थव्यवस्था के लिए बड़े कदम उठाने का यह अहम मौका होगा। रिजर्व बैंक ने भी वित्तमंत्री के पाले में गेंद डाल दी है।
ताजा मौद्रिक समीक्षा बताती है कि मौजूदा वित्तवर्ष की तीसरी तिमाही में औद्योगिक और कृषि वृद्धि दर में कमी आने से अर्थव्यवस्था की गति सुस्त रही। इससे एक दिन पहले आठ बुनियादी उद्योगों में सुस्ती बरकरार रहने की खबर आई। कोयला, प्राकृतिक गैस, बिजली, इस्पात, सीमेंट, रिफाइनरी उत्पाद और फर्टिलाइजर की वद्धि दर दिसंबर में घट कर एक फीसद से भी नीचे आ गई। चालू वित्तवर्ष के पहले नौ महीनों में यानी अप्रैल से दिसंबर के दरम्यान कोर सेक्टर कहे जाने वाले इन उद्योगों की वृद्धि दर केवल 1.9 फीसद रही है।
कुल औद्योगिक उत्पादन में इन उद्योगों की हिस्सेदारी अड़तीस फीसद है। लिहाजा, औद्योगिक सूचकांक में सुधार होने की ज्यादा गुंजाइश नहीं दिखती। विश्व-बाजार में मंदी जैसे हालात के चलते निर्यात में सिकुड़न का सिलसिला जारी है। डॉलर के मुकाबले रुपए का अवमूल्यन भी रिकार्ड स्तर पर जा पहुंचा है। महीनों तक तेजी दिखाने के बाद शेयर बाजार वहीं जा पहुंचा है जहां वह पिछली सरकार की विदाई के समय था। रोजगार के मोर्चे पर बुरा हाल है। राहत की बात यह है कि राजकोषीय घाटे की स्थिति में सुधार के संकेत हैं। पर इसका श्रेय किसी नीतिगत या प्रबंधकीय कौशल को नहीं बल्कि कच्चे तेल की कीमतों में आई अपूर्व गिरावट को है।
सरकार ने राजकोषीय घाटे को मौजूदा वित्तवर्ष में 3.9 फीसद, अगले वित्तवर्ष में साढ़े तीन फीसद और 2018 तक तीन फीसद पर लाने का लक्ष्य तय कर रखा है। राजकोषीय घाटे के क्रमिक रूप से कम होने के कारण कॉरपोरेट जगत का हौसला बढ़ना चाहिए, पर विडंबना यह है कि इन्हीं दिनों निजी निवेश की रफ्तार मंद है। मौद्रिक समीक्षा ने भी स्थगित या अधर में लटकी परियोजनाओं को लेकर चिंता जताई है। एक समस्या सरकारी बैंकों का बढ़ता एनपीए है, जिसकी ओर रघुराम राजन हाल में कई बार ध्यान खींच चुके हैं। ये सारी समस्याएं मौद्रिक कवायद से हल नहीं हो सकतीं। इसके लिए सरकार को ही सूझबूझ और इच्छाशक्ति दिखानी होगी।