जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे के लिए देश और इसके समूचे तंत्र की कितनी ऊर्जा लगी है, यह सभी जानते हैं। विडंबना यह है कि दशकों पहले से जारी इस समस्या से पार पाने के लिए सरकारों ने दावे तो बहुत किए, वक्त के साथ नए उपाय भी किए गए, लेकिन आज भी वहां जिस स्तर की आतंकवादी गतिविधियां चल रही दिखती हैं, वह देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। गौरतलब है कि हाल ही में सुरक्षा बलों को यह खबर मिली थी कि पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के कुछ सदस्य घुसपैठ कर कठुआ के जंगलों में छिप गए हैं।
उन्हीं आतंकवादियों की तलाश में जम्मू-कश्मीर की पुलिस की अगुवाई में अभियान चलाया जा रहा था। इस बीच गुरुवार की सुबह पुलिस बल ने आतंकियों के एक समूह को घेर लिया। इसके बाद हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने तीन आतंकियों को मार गिराया, लेकिन इस क्रम में तीन पुलिसकर्मी भी शहीद हो गए और सेना के दो जवानों सहित सात अन्य घायल हो गए।
इसमें कोई दोराय नहीं कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल और वहां की पुलिस ने आतंकियों से मोर्चा लेने के मामले में हमेशा ही सजगता बरती है और इसमें उन्हें काफी हद तक कामयाबी मिली है। मगर यह भी कड़वी हकीकत है कि आज भी वहां आतंकवादी संगठन इस रूप में अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं कि वे सुरक्षा बलों के शिविरों पर हमला कर देते हैं और कई बार उनकी जान भी चली जाती है। सुरक्षा बलों या किसी पुलिसकर्मी की शहादत की घटना दरअसल यह विचार करने की जरूरत को रेखांकित करती है कि आतंकियों से निपटने की रणनीति में क्या किसी बदलाव की जरूरत है! क्या इस समस्या की तहों में जाना अब भी बाकी है?
जम्मू-कश्मीर में इतने लंबे समय तक प्रकारांतर से केंद्र सरकार का शासन रहा, सुरक्षा बलों की ओर से हर स्तर पर सावधानी और सख्ती बरती गई, अक्सर मुठभेड़ों में आतंकियों को मार गिराने में कामयाबी मिली, उसके बावजूद यह समझना मुश्किल है कि आज भी आतंकियों के हौसले में कमी क्यों नहीं आ पा रही है। क्या यह उनके आतंकी तंत्र के मजबूत संजाल और सीमापार से परोक्ष सहयोग के बूते हो रहा है या फिर कहीं किसी स्तर पर उनके पांव को राज्य से उखाड़ने के प्रति और ज्यादा सख्ती और गंभीरता की जरूरत है?
जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन खत्म होने के बाद जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार ने काम करना शुरू किया था, तब उससे उपजी एक उम्मीद यह भी थी कि अब वहां नए सिरे से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई शुरू होगी। मगर अब भी वहां सरकार के कामकाज का कोई ऐसा ठोस असर सामने नहीं आया है, जिससे आतंकियों के हौसले पस्त हों। वरना क्या वजह है कि हर स्तर पर निगरानी या चौकसी के बावजूद आए दिन आतंकी संगठन सुरक्षा बलों पर हमले कर देते हैं और उसमें कई जवान शहीद हो जाते हैं।
केंद्र सरकार यह दावा जरूर करती है कि पिछले कुछ समय में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद में कमी आई है, मगर अक्सर सीमा पार से आतंकियों की घुसपैठ, उनसे सुरक्षा बलों की मुठभेड़, कुछ आतंकियों के मारे जाने के साथ-साथ सेना या पुलिस के जवानों की शहादत से यही लगता है कि वहां इस समस्या की जड़ें कायम हैं और शांति फिलहाल दूर की कौड़ी है। बल्कि पिछले कुछ वर्षों में आतंकियों के लक्षित हमलों में प्रवासी मजदूरों के मारे जाने की घटनाओं ने हालात के और जटिल होने को रेखांकित किया है।