सेना में स्त्री-पुरुष समानता सुनिश्चित करने में भारत की प्रगति धीमी रही है। बावजूद इसके, महिलाएं तमाम चुनौतियों को पार करते हुए सेना के तीनों अंगों में अपनी जगह बना रही हैं और धीरे-धीरे अग्रणी भूमिका में भी दिखने लगी हैं। मगर यह संख्या अब भी संतोषजनक नहीं है। पुरुषों के मुकाबले जिस अनुपात में महिलाओं को सेना में अवसर मिलना चाहिए, उस पर प्राय: सवाल उठते रहे हैं। कोई दोराय नहीं कि जब जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, तो सैन्य बलों में उनकी प्रतिभागिता पर्याप्त रूप से क्यों नहीं बढ़ाई जानी चाहिए?

अभी सेना में महिलाओं की उपस्थिति कोई बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। शीर्ष न्यायालय ने उचित ही सवाल किया है कि जब महिलाएं रफाल उड़ा सकती हैं, तो सेना की कानूनी शाखा में उनकी संख्या सीमित क्यों है। वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं नियुक्त हो सकतीं। स्थायी कमीशन के लिए भी सेना में कार्यरत महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा था। अपने अधिकारों के लिए उन्हें कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। तब शीर्ष न्यायालय के एक महत्त्वपूर्ण फैसले के बाद सेना में उच्च पद पर उनके पहुंचने का रास्ता खुला था।

अग्रिम मोर्चे पर महिलाएं निभाने लगी हैं अहम भूमिकाएं

स्त्री-पुरुष समानता के सवाल पर अदालतें सरकार को अपनी मानसिकता बदलने की नसीहत देती रही हैं। महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का फैसला सुनाते समय भी जब अदालत ने सरकार को टोका था, तो उसका कहना था कि रक्षा बलों में पुरुष अभी महिला अधिकारियों की कमान स्वीकार करने के लिए मानसिक रूप से प्रशिक्षित नहीं हो पाए हैं। मगर अब तो अग्रिम मोर्चे में महिलाएं कई अहम भूमिकाएं निभाने लगी हैं।

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सीमित संख्या में ही सही, अगर महिलाएं युद्धक विमान उड़ाने के काबिल हो गई हैं, तो क्या पुरुष वर्चस्व की मानसिकता नहीं बदलनी चाहिए। सेना की विभिन्न शाखाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के साथ उन्हें युद्ध क्षेत्र में क्यों नहीं तैनात किया जाना चाहिए। आज सेना की सभी चिकित्सा सेवाओं का नेतृत्व महिलाएं ही कर रही हैं। इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए कि बाकी सेवाओं में भी अग्रणी भूमिका से उन्हें क्यों वंचित रखा जाए।