राजनीति का मुद्दा बनाने या अन्य किसी भी माध्यम से भाषणों के जरिए नफरत फैलाने वाली गतिविधियों पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी कई बार हिदायत दी है और इस पर लगाम लगाने के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में पूछा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि न तो सरकार, राजनीतिक दलों, टीवी मीडिया और समूचे तंत्र को इस पर गौर करना जरूरी लगा और न ही इसके गंभीर नतीजों के खतरे को समझा गया।
इस मसले पर एक तरह से गंभीर उदासीनता और उपेक्षा जैसे हालात के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने जो सख्त रुख अख्तियार किया है, वह बिल्कुल स्वाभाविक है और एक तरह से इस समस्या का ठोस हल निकालने की हिदायत है। शीर्ष अदालत ने शुक्रवार को घृणा फैलाने वाले भाषण के मामलों में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को तत्काल कार्रवाई करने का निर्देश दिया। अदालत ने साफ कहा कि जब भी कोई नफरत फैलाने के मकसद से भाषण देता है तो बिना किसी शिकायत के स्वत: संज्ञान लेकर उस मामले में प्राथमिकी दर्ज किया जाए; अगर घृणा भाषण से जुड़े मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने में देरी हुई तो उसे अदालत की अवमानना माना जाएगा।
इस सख्त निर्देश से पहले सुप्रीम कोर्ट ने कई बार सरकारों, राजनीतिक पार्टियों और इसे बढ़ावा देने वाले टीवी चैनलों को चेताया था कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएं। इसी क्रम में अदालत ने पिछले साल अक्तूबर में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों को सख्त कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। लेकिन जैसा कि जाहिर है, यह केवल कुछ राज्यों तक सीमित समस्या नहीं रह गई है।
शायद यही वजह है कि अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने आदेश का दायरा बढ़ाते हुए देश के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को ये निर्देश दिए हैं कि घृणा भाषणों के प्रति किसी भी स्तर पर नरमी न बरती जाए। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में कार्रवाई करते हुए इस बात की परवाह करने की जरूरत नहीं है कि नफरत फैलाने वाले भाषण देने वाले का धर्म क्या है। कई बार जब इस तरह के मामले सामने आते हैं तो उसमें कई बार धार्मिक पहचान का मामला कार्रवाई को प्रभावित करने लगता है। इसलिए अदालत की इस चिंता को समझा जा सकता है कि हम धर्म के नाम पर कहां पहुंच गए हैं, यह बेहद दुखद है।
दरअसल, कभी इक्का-दुक्का उदाहरणों में सिमटे रहने वाली यह समस्या पिछले कुछ समय से कई स्तर पर चुनौतियां खड़ी कर रही हैं। सच यह है कि अगर इस पर रोक नहीं लगाई गई तो यह देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि महज राजनीतिक हित साधने के लिए अगर कोई व्यक्ति या नेता नफरत के बोल के जरिए लोगों को भड़काने की कोशिश करता है तो उसका मकसद अपने धर्म को बचाना नहीं, बल्कि आम लोगों की सोच-समझ को विकृत बनाना होता है।
वह लोगों को भड़का कर उन्हें उन्मादी और अपनी सोच-समझ से वंचित और यहां तक कि हिंसक मानसिकता का बना देना चाहता है। जबकि सच यह है कि किसी भी समाज में लोग आमतौर पर शांति और सद्भाव से जीना चाहते हैं। सवाल है कि घृणा भाषणों के जरिए किस तरह देश या धर्म बचाने का दावा किया जाता है। अगर यह समय रहते नहीं समझा गया तो हर समुदाय और सबको इसका व्यापक नुकसान झेलना पड़ सकता है। इसलिए इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने जो सख्ती दिखाई है, वह वक्त की जरूरत है और देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के ढांचे को बचाने की सलाह है।