सरकारी विज्ञापनों में सत्ताधारी दल के प्रचार पर लंबे समय से सवाल उठने रहने के बावजूद शायद ही कोई ऐसी कवायद सामने आई हो जिससे इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने की सूरत बने। लेकिन दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने बुधवार को जो आदेश जारी किया, उसने न केवल आम आदमी पार्टी को असुविधा में डाल दिया है, बल्कि इससे सत्ताधारी दलों की ओर से सरकारी विज्ञापनों के बेजा इस्तेमाल पर रोक का सवाल एक बार फिर बहस में आ गया है। उपराज्यपाल ने ‘आप’ से तीस दिनों के अंदर सत्तानबे करोड़ रुपए वसूल करने के आदेश दिए हैं, जो पार्टी को लाभ पहुंचाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च हुए। केंद्र सरकार की ओर से गठित सरकारी विज्ञापनों में प्रचार सामग्री पर निगरानी करने वाली समिति की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि दिल्ली सरकार के विज्ञापनों के जरिए आम आदमी पार्टी और इसके नेता अरविंद केजरीवाल को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई थी। इससे पहले ‘आप’ के विज्ञापनों पर कैग ने अपनी एक रिपोर्ट में सवाल खड़े किए थे।
खबरों के मुताबिक उन विज्ञापनों में सुप्रीम कोर्ट के तेरह मई 2015 के आदेशों का उल्लंघन कर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तस्वीर का इस्तेमाल किया गया था। हालांकि लगभग साल भर पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की तस्वीरों के प्रयोग की इजाजत दे दी थी। फिर भी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार के मकसद से जारी विज्ञापन अगर सत्ताधारी पार्टी या उसके किसी नेता के प्रचार का जरिया बनते हैं तो यह जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल ही है। सवाल है कि जो पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल राजनीति में पसरे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के दावे पर ही जनता के बीच लोकप्रिय हुए, उनकी ओर से भी सरकारी धन और मशीनरी के दुरुपयोग के मामले क्यों सामने आते रहे! वे दूसरे राजनीतिकों से अलग क्यों नहीं साबित हुए? अलग-अलग राज्यों से ऐसे तमाम उदाहरण आते रहे हैं जिनमें स्कूली बस्ते या सरकारी कार्यक्रम के तहत जारी किसी अन्य सामान पर सत्ताधारी पार्टी के नेता की तस्वीर लगा दी गई।
चार महीने पहले सूचनाधिकार कानून के तहत यह तथ्य सामने आया था कि केंद्र सरकार की ओर से पिछले ढाई साल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित विज्ञापनों पर ग्यारह सौ करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह खर्च सिर्फ प्रसारण, टीवी, इंटरनेट और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का था और इसमें प्रिंट विज्ञापन, होर्डिंग, पोस्टर, बुकलेट और कैलेंडर आदि का खर्च शामिल नहीं था। केजरीवाल सरकार के विज्ञापनों पर शोर मचाने वाली भाजपा को खुद सरकारी खजाने का वैसा ही इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं हुई! ज्यादातर पार्टियां अपने घोषित दावे और वादे के उलट, सत्ता में आने पर सरकारी पैसे को दलगत प्रचार के लिए खर्च करने में पीछे नहीं रही हैं। इन विज्ञापनों में नेताओं या मंत्रियों की तस्वीरें ऐसे प्रकाशित की जाती हैं कि वे उपलब्धियां सरकार की न होकर उनकी लगती हैं। यह खुद के महिमामंडन का ओछा प्रयास तो है ही, करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग भी है।