गुरुवार को पंजाब में तीन रैलियां हुर्इं। अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की। तीनों रैलियां मुक्तसर में माघी मेले के मौके पर। इस शक्ति-प्रदर्शन में आम आदमी पार्टी ने बाजी मारी। पंजाब में ‘आप’ ने अपनी ताकत का सबूत लोकसभा चुनाव में ही दे दिया था, जब पहली बार मैदान में उतरने के बावजूद उसने राज्य की तेरह सीटों में से चार सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि दिल्ली के अपने गढ़ में उसे सात में से एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई थी। इसलिए आप की उस सफलता को एक करिश्मे की तरह देखा गया। पर इसके मूल में था, अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार से असंतोष। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रति नाराजगी का आलम लगभग पूरे देश में था, लिहाजा पंजाब में भी। पर पंजाब में कुछ बरसों से बादल-राज के प्रति भी असंतोष बढ़ता गया है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में पंजाब में मोदी का जादू वैसा नहीं चला जैसा अन्य राज्यों में, क्योंकि भाजपा वहां अकाली दल के साथ है और गठबंधन सरकार का हिस्सा है। अब पंजाब विधानसभा का कार्यकाल बस एक साल रह गया है। इसलिए वहां चुनाव की गहमागहमी शुरूहो चुकी है। माघी मेले का दिन चुनावी रणभेरी बजने का पहला बड़ा मौका था। इसके लिए आम आदमी पार्टी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। पर अकाली दल और कांग्रेस ने भी अपनी-अपनी रैली को कामयाब बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर क्यों केजरीवाल भारी पड़ते दिखे। इसकी वजह यही है कि पंजाब की राजनीति में आम आदमी पार्टी एक ताजा बयार की तरह है।

अकाली-भाजपा गठबंधन को लगातार सत्ता में दस साल हो चुके हैं। उनसे लोगों में उकताहट साफ महसूस की जा सकती है। दूसरी ओर, परंपरागत प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को भी लोगों ने पहले कई बार सत्ता सौंप कर देखा है। वहां कांग्रेस का चुनावी चेहरा कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं, जो मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इसलिए बदलाव का वादा करने या भरोसा दिलाने की सबसे अनुकूल स्थिति आम आदमी पार्टी के साथ है। अलबत्ता किसी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने का पार्टी ने अभी कोई निर्णय नहीं किया है। या, ऐसा कोई लोकप्रिय चेहरा उसके पास नहीं है! जबकि दिल्ली में वह केजरीवाल को पांच साल देने के नारे पर ही मैदान में उतरी थी। पंजाब में आप के मुद््दे क्या होंगे, यह केजरीवाल के भाषण से साफ है। मादक पदार्थों के व्यापार, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था की बदहाली के अलावा केजरीवाल ने गुरुग्रंथ साहब का अपमान किए जाने की घटनाओं का बार-बार जिक्र किया। उन्नीस सौ चौरासी के सिख-विरोधी दंगों की याद दिलाना भी वे नहीं भूले, न पीड़ितों को अपनी सरकार की ओर दिए गए मुआवजे का उल्लेख करना। साफ है कि वे भावनात्मक कार्ड खेलने में भी पीछे रहना नहीं चाहते। पर पंजाब चुनाव में करीब साल भर का वक्त है। नतीजे का अभी से कोई अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा। पर आम आदमी पार्टी की रैली में जुटी भीड़ अकाली-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। कांग्रेस और अकाली दल अपनी प्रतिक्रियाओं से भले आम आदमी पार्टी को कोई बड़ी चुनौती मानने का संकेत न दें, पर वे जानते हैं कि मुकाबला केवल उनके बीच नहीं होगा, यह पूरी तरह त्रिकोणीय हो चुका है।