आधार कार्ड को लेकर सर्वोच्च अदालत का ताजा फैसला साफ तौर पर केंद्र सरकार के लिए एक झटका है। अदालत ने कहा है कि सरकार अपनी कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं बना सकती। अलबत्ता अदालत ने यह भी कहा है कि गैर-लाभकारी कामों मसलन बैंक खाता खोलने या आय कर रिटर्न दाखिल करने के सिलसिले में सरकार आधार कार्ड मांग सकती है और उसे ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता। यह फैसला ऐसे वक्त आया है जब हाल में केंद्र सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार को अनिवार्य बनाने का एलान किया था, और वह आधार की अनिवार्यता का दायरा लगातार बढ़ाती रही है। जाहिर है, उस कवायद पर पानी फिर गया है। लेकिन इसके लिए वह खुद जिम्मेवार है। आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका कई साल से सर्वोच्च अदालत में लंबित है। तब से अदालत ने समय-समय पर कुछ अंतरिम निर्णय सुनाए हैं, पर कभी भी कल्याणकारी योजनाओं में आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने की इजाजत नहीं दी थी। उलटे, इसके विपरीत ही निर्देश दिए थे।

दरअसल, अदालत के ताजा फैसले ने उसके पिछले फैसलों की पुष्टि भर की है। निजता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार मानने के कोण से आधार कार्ड की संवैधानिकता को याचिका के जरिए जो चुनौती दी गई है उस पर तो अदालत ने अभी कुछ कहा ही नहीं है, यह मसला तो सात सदस्यीय संविधान पीठ सुलझाएगा, जिसका गठन फिलहाल नहीं हुआ है। पिछले फैसलों को याद करें। सितंबर 2013 में सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि रसोई गैस सबसिडी जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। अगस्त 2015 में अदालत ने फिर इसी आशय का फैसला सुनाया। इसके कोई दो माह बाद अदालत ने मनरेगा, पेंशन, भविष्य निधि, प्रधानमंत्री जन धन योजना आदि को आधार कार्ड से जोड़ने की इजाजत तो दी, पर साथ में यह भी कहा कि यह स्वैच्छिक होना चाहिए, अनिवार्य नहीं। लेकिन इन सारे फैसलों के बावजूद सरकार एक के बाद एक, आधार की अनिवार्यता की झड़ी लगाती गई। मिड-डे मील, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन व मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, जननी सुरक्षा योजना, एकीकृत बाल विकास योजना के तहत चलने वाला प्रशिक्षण कार्यक्रम, दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना, मातृत्व लाभ कार्यक्रम से लेकर आरक्षित वर्ग के बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्ति तक, आधार को अनिवार्य बनाते जाने की सरकार की जिद से कुछ भी बच नहीं सका।

जब मामला अदालत में लंबित हो, तो सरकार को उसी हद तक जाना चाहिए था जहां तक अंतरिम फैसले छूट देते थे। लेकिन सरकार ने ऐसे व्यवहार किया मानो अदालती फैसलों का वजूद ही न हो। विडंबना यह है कि आधार कार्ड को लेकर न समझ में आने वाली यह उतावली और विचित्र उत्साह का प्रदर्शन एक ऐसी पार्टी ने किया जिसने विपक्ष में रहते हुए आधार योजना के औचित्य पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। भारत के हर नागरिक को बारह अंकों का एक विशिष्ट पहचान नंबर आबंटित करने की योजना यूपीए सरकार ने शुरू की थी और इसके लिए विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) का गठन किया था। तब यह योजना भाजपा के गले नहीं उतर रही थी और उसके नेताओं ने संसद के भीतर भी और बाहर भी इसकी जमकर आलोचना की थी। आज उसी योजना को भाजपा ने सिर-माथे लगा लिया है। सत्ता में आने पर उसका रुख बदल जाने के कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर आधार के मामले में उसे यह तो खयाल रखना चाहिए था कि देश की सर्वोच्च अदालत ने क्या सीमा बांध रखी है।