सरस्वती रमेश

खेल खिलाड़ी खेलता है, लेकिन खेल-खेल में कोई खिलाड़ी नहीं बन जाता। खिलाड़ी बनने की राह में तमाम तरह की मुश्किलें आती हैं। और फिर भारत जैसे पारंपरिक देश, समाज में लड़कियां जब क्रिकेट, हाकी, पहलवानी जैसे पुरुष वर्चस्व वाले खेल को अपना करियर चुनती हैं, तो उनके सामने अजीब किस्म की मुश्किलें आती हैं। अव्वल तो उन्हें घर से कोई सहयोग, समर्थन नहीं मिलता। हाथ-पैर तुड़वाएगी क्या, मर्दों जैसी देह बनाएगी क्या? जैसे प्रश्नों से लड़कियों को दो चार होना पड़ता है। अगर घर से इजाजत मिल भी गई, तो उनका हौसला तोड़ने वालों की कमी नहीं होती। स्पोर्ट्स अकादमी में आते-जाते या अपने खेल का अभ्यास करते हुए उन्हें अपने पुरुष यार-दोस्तों से बातें करना, राय-मशविरा लेना भी भारी पड़ सकता है।

जरा-सा नुक्स मिला नहीं कि समाज के लोग लड़कियों को ‘हाथ से निकल चुकी’, ‘आवारा’, ‘बेहया’ जैसी उपमाओं से नवाज कर उन्हें नीचा दिखाने की भरकस कोशिश करते हैं। दरअसल, छोटे शहरों और गांवों में आम लोगों की धारणा अब भी यही है कि लड़कियां चूल्हा-चौका करते हुए अच्छी लगती हैं। खेलने-कूदने, उछलने, घूमने और चीखने-चिल्लाने वाली लड़कियां सुसंस्कारित बहुएं नहीं बन सकतीं। भला ऐसी लड़कियों से कौन शादी करेगा। मां-बाप को भी अपनी बेटी को कामयाब बनाने से अधिक उनके ब्याह की चिंता सताती है।

याद है, जब स्कूल के दिनों में मुझे दौड़ने का भूत सवार हुआ था। सुबह जल्दी उठ कर सड़क पर दौड़ने भाग जाया करती थी। पापा से छिप कर। क्योंकि पापा को मेरा घर से बाहर निकलना भी पसंद नहीं था। महीना भर भी नहीं बीता था कि पास की कालोनी से सुबह की सैर के लिए आने वाले कुछ बुजुर्गों ने रोक कर मुझसे मेरा नाम पूछा था और कहा था- तुम बहुत अच्छा दौड़ती हो। दौड़ जारी रखना।

अगली सुबह मैं दौड़ने जाने के लिए और भी उत्साहित थी। मगर मेरे उठने से पहले पापा उठ गए और गेट पर चौकीदार बन कर खड़े हो गए। उन्हें मेरे दौड़ने जाने की भनक लग चुकी थी। परिवार में पापा से बात करने और उनकी मर्जी के विरुद्ध जाने की किसी में हिम्मत नहीं थी। मुझमें भी नहीं। यह सिलसिला रोज चलता रहा और कुछ ही रोज में मेरा दौड़ने जाना बंद हो गया।

ऐसे में इस बार ओलंपिक खेलों में जब मैं गांव, कस्बों की पृष्ठभूमि से आई लड़कियों को हाकी खेलते देख रही थी, तब एक प्रश्न मेरे मन में बार-बार कौंध रहा था। ओलंपिक खेलों तक पहुंचने से पहले मेरे देश की काली, सांवली लड़कियां किस-किस से लड़ी होंगी। कैसे गोरे रंग की चाहत को हराया होगा और धूप में हाकी के अभ्यास के लिए निकली होंगी। कैसे चूल्हे-बर्तन की जिम्मेदारी से खुद को मुक्त किया होगा। कैसे अपने पुरुष कोच से ट्रेनिंग लेने के लिए घर वालों को मनाया होगा।

कैसे शादी का रिश्ता लेकर आने वाले रिश्तेदारों की नजरों से बची होंगी। जब आस्ट्रेलियाई टीम की खिलाड़ी अपना पूरा ध्यान खेल पर लगा कर अभ्यास कर रही होंगी, तब हमारे देश की लड़कियों को किस तरह अपनी शादी टलवाने, बाल कटवाने और छोटी स्कर्ट में घर से बाहर निकलने की चिंता सता रही होगी। ऐसे माहौल में पली लड़कियां अगर हाकी, क्रिकेट खेलती हैं, तो किसी चमत्कार से कम नहीं। ऐसा हर जगह, हर किसी के साथ होना जरूरी नहीं, मगर छोटे शहरों, कस्बों, गांवों से आई अधिकतर लड़कियों की यही कहानी होती है। लड़कियों में लड़कियों के लक्षणों को बचपन से ही बोने की परंपरा शुरू कर दी जाती है।

उन्हें अपने घर की बड़ी लड़कियों और महिलाओं से सजने-संवरने की सीख मिलती है। सुंदर दिखने और कुछ खास किस्म के लिबास पहनने का चलन होता है। इससे इतर किसी लड़की को अलग रंग-ढंग में देखने का आदी नहीं होता हमारा समाज। यदि साधारण परिवार से ताल्लुक रखने वाली कोई लड़की खेलों में जाने की सोचती है, तो उसे पहले लड़कियों के लिए बनाए गए इन लक्षणों से लड़ाई लड़नी पड़ती है। खुद को लड़कियों के लिए बनी-बनाई मानसिकता से बाहर निकालना पड़ता है।

दो पहलवान बहनों की जिंदगी पर बनी फिल्म दंगल में जब महावीर फोगाट ने अपनी बेटियों को पहलवानी सिखाने का फैसला किया, तो पहले उनकी बेटियों ने ही उन पर प्रश्न उठाया। वे भी अपने आसपास की लड़कियों जैसी ही बनना चाहती थीं। उन्हें भी आम लड़कियों जैसा ही रहने का मन करता था। महावीर जी को पहले अपनी बेटियों को उस मानसिकता से बाहर निकालना पड़ा।

ओलंपिक खेलों में भारतीय महिला हाकी टीम सेमीफाइनल में आस्ट्रेलियाई टीम से भिड़ी, तो दोनों टीमों के खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि में जमीन आसमान का फर्क था। आस्ट्रेलियाई हाकी टीम की खिलाड़ी तो भारतीय टीम की खिलाड़ियों की मुसीबतों के बारे में सोच भी नहीं सकतीं।