भावना मासीवाल

छात्र जीवन और राजनीति का बड़ा गहरा संबंध है। हमारे देश के बड़े-बड़े नेताओं की डगर छात्र जीवन से ही राजनीति की ऊंचाइयों तक पहुंची है। हमारे देश में छात्र राजनीति का एक लंबा इतिहास रहा है। यह इतिहास आजादी से पूर्व, आजादी के समय और उसके बाद का है। आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी के साथ देश के हजारों युवा छात्र भी शामिल थे, जो न केवल स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय रहे, बल्कि कालेज, विश्वविद्यालय परिसर में भी, जिन्होंने देश की आजादी का नारा दिया और अपनी भविष्य की चिंताओं से मुक्त देश की आजादी के लिए लड़े और राष्ट्रवाद, लेनिन-मार्क्सवाद, समाजवाद, लोहियावाद, वाम, आंबेडकरवाद आदि विचारधाराओं से राजनीति को जोड़ा। इन्हीं के अनुरूप आजादी के उपरांत सत्ता बनी, आंदोलन हुए, व्यवस्था परिवर्तन और क्रांतियां हुर्इं। आजादी से पूर्व, आजादी के बाद और वर्तमान समय तक में इसके कई रूप देखने को मिले।

छात्र राजनीति और युवाओं का संबंध बहुत पुराना है। राजनेता और राजनीतिक दल युवा श्क्ति का उपयोग अपने मकसद के लिए भी खूब करते रहे हैं। युवा, जो देश का भविष्य है, वह राजनीति के अंधेरे गलियारों में चक्कर लगा कर अंत में थक कर दम तोड़ रहा है। स्कूली छात्रों से लेकर कालेज, विश्वविद्यालय तक के छात्रों में राजनीति के प्रति बढ़ता आकर्षण उन्हें सत्ता और ताकत की तरफ खींच रहा है। आज छोटे से छोटे महाविद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक में सक्रिय छात्र संघ का उद्देश्य ही देश की राजनीति में अपना स्थान बनाना है, चाहे वह किसी भी रूप में बनाई जाए।

यही कारण है कि वर्तमान समय में जिस प्रकार राजनीति के कई बदलते चेहरे देखने को मिलते हैं, उसी प्रकार छात्र राजनीति में भी छात्र हित से अधिक व्यक्ति और पार्टी हित का समावेश देखने को मिलता है। समाज में बदलाव लाने, छात्र हित और समाज को मजबूत नेतृत्व देने की जिस परिकल्पना से छात्र संघ की निर्मिति हुई थी वह उद्देश्य अब धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। पार्टी का टिकट, पद, शक्ति की चाह ने छात्र राजनीति को भी एक नया ही रूप प्रदान किया है। वर्तमान में राजनीति के प्रति छात्रों का आकर्षण सत्ता और पद की लोलुपता है।

हमारे देश में हर आम आदमी जानता है कि वह शिक्षा के माध्यम से चाहे कितना ही बड़ा पद प्राप्त क्यों न कर ले, पर एक छोटे से मंत्री के सामने भी उसका कोई वजूद नहीं है और अगर उन मंत्री महोदय को किसी कारण गुस्सा आ गया तो बरसों की मेहनत से मिली नौकरी को उन्हें छीनने या तबादला करने में अधिक समय नहीं लगेगा। हमारे आसपास ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटती रहती हैं, जिनमें इस तरह के दृश्य स्पष्ट देखे गए हैं।

हमारे युवा भी तो इसी देश के नागरिक हैं, फिर वह कैसे इन दृश्यों से अर्थों को ग्रहण नहीं करेंगे? उसी का प्रभाव है कि आजकल युवाओं में बड़ा अधिकारी बनने से अधिक मोह मंत्री या मंत्री का चेला बनने का है। इसमें भी ‘एक पंथ दो काज’ की मानसिकता काम करती है। सिफारिशों और चाटुकारिता की इस दुनिया में जब सभी काम मंत्री जी के रास्ते हो रहे हैं, तो चलो किताबों से अधिक उनसे संबंध बनाने पर मेहनत की जाए, बाकी तो मंत्री जी रास्ते बना ही देंगे।

राजनीति की सबसे अधिक घुसपैठ शिक्षा संस्थानों में देखने को मिलती है। इस कारण शिक्षा संस्थान भी चुनावी एजेंडे का हिस्सा बने रहते हैं। आजादी से पूर्व तक शिक्षण संस्थान आजादी की लड़ाई के लिए लड़ रहे थे और आज व्यवस्था में अपनी मजबूत पैठ के लिए लड़ रहे हैं। इस व्यवस्था में आत्मनिर्भरता से अधिक नेताओं पर निर्भरता की मानसिकता के कारण चुनावी सरगर्मी में कुकुरमुत्तों के समान नेता भी उभरने लगते हैं।

आज हर मुहल्ले में एक नेता और उसका एजेंडा मौजूद है। चुनाव की तिथियां पास आने पर इनमें हलचल तेज हो जाती है। आपदाएं, विपदाएं, झगड़े, फसाद, धरना, आंदोलन, विवाद, हिंसा सभी अपने चरम पर पहुंच जाती है। इसी सब के बीच छात्र नेता और उनके सहयोगी अपनी-अपनी पार्टी का एजेंडा बनाने लगते हैं। दो विपरीत धाराओं की पार्टी के छात्र नेता अपने पार्टी हितों के लिए एक-दूसरे से वैमनस्य स्थापित कर लेते हैं।

वहीं पार्टी नेता आपस में मिल कर चाय की चुस्कियां और इन स्थितियों का आनंद ले रहे होते हैं। हमारे देश के युवा आज इसी मकड़जाल में घिरे हुए भटक रहे हैं, क्योंकि हमने काम करने की सामाजिक व्यवस्था को ही ऐसा बना दिया है, जहां व्यक्ति की काबिलियत से अधिक उनका नेताओं के साथ मजबूत पकड़ को महत्त्व दिया जाता है। यह हमारी व्यवस्था ही है, जिसने हुनर से अधिक सत्ता की ताकत को बढ़ावा दिया है और छात्र राजनीति के नाम पर युवाओं को दिग्भ्रमित किया है।