देवेश त्रिपाठी

बहुत दिन बाद एक शहर में पहुंचने के बाद यह लगा कि वहां तीन पहिये वाला रिक्शा चलाने वाले लोगों की बहुत कमी हो गई है और उसके स्थान पर ई-रिक्शा का चलन बढ़ गया है। जब भी कभी ऐसे शहरों को देखा जाए तो किसी को भी ऐसे मेहनतकश लोगों के सूखे हुए शरीर की याद आ सकती है जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए सुबह से शाम सवारियों को ले जाने और ले आने में लगे रहते थे।

सही है कि आजकल पर्यावरण को लेकर चिंता का जोर जिस कदर बढ़ गया है, उसमें ई-रिक्शा का चलन पैसों में बढ़ोतरी और पर्यावरण के दृष्टिकोण से प्रदूषण रहित है, लेकिन जो रिक्शा चालक रिक्शे पर गमछा बांधकर सवारियों को ले जाते हुए महसूस करता दिखता था, वह अब ई-रिक्शा चालकों के पास नहीं दिखेगा। पेशे में मानवीयता के पहलू का सवाल भी है। पीड़ा और अनुभव के दायरे बदल गए हैं। आधुनिक तकनीकी के संदर्भों का दायरा बड़ा हो गया, मानवीयता के प्रश्न ज्यादा उलझ गए हैं।

बहरहाल, उन पुराने रिक्शा चालकों के जीवन को करीब से देखने वालों को याद होगा कि वे किसी शहर में एक छोटी-सी गुमटी-खोली में रहते थे, जहां लगभग पच्चीस या पचास संख्या में सभी रिक्शा चालक अपने रिक्शा मालिक की खुशामद भी करते रहते थे। बीते दिनों की याद में वह बात झलक आती है कि कैसे दो-तीन बोरे में सामान बस से कोई उतारता था तो वहां मौजूद सभी रिक्शा चालक बस को चारों तरफ से घेर लेते थे।

हर कोई सोचता था कि हमें सवारी मिल जाए और कुछ पैसों की आमदनी हो जाए। किसी व्यक्ति की जिस रिक्शा वाले से बात तय होती थी, वह अपने यात्री की सामान को बस से निकालकर अपने रिक्शे पर रखता था। गमछे से सीट का धूल पोंछता था और पर्दे को ऊपर भी करता था, ताकि धूप न लगे। लेकिन तेजी से बदलते हुए परिदृश्य में वे रिक्शा चालक और उनके रिक्शे अब खो गए हैं।

उनकी जगह उनसे ज्यादा रफ्तार वाला ई-रिक्शा चालक धीरे-से आता है और कम किराए में सवारी को बैठा कर निकल जाता हैं। बोलचाल की भाषा और व्यवहार में अब मिठास और सहजता लुप्त होती जा रही है। पहले के रिक्शे से उतरते हुए किराए में कुछ कमी हो जाती थी, तो दोनों तरफ की दयनीयता एक अलग ही छवि रचती थी। तब रिक्शे के चालक का स्वभाव कई बार इतना मानवीय होता था कि सवारी एक स्पर्श लेकर जाता था।

आज मशीन युग की जरूरत है, मगर इसके साथ सब कुछ मशीनी होता जा रहा है। जिस तरह से बड़े-बड़े महानगरों में इलेक्ट्रिक बस और ई-रिक्शा की तादाद बढ़ी है, उसी गति से वे संसाधन गायब होते जा रहे हैं, जो मशीनी नहीं थे। नगरों में चलने वाली बसें अब वातानुकूलित होती हैं और बाहर का तापमान गरम धूप से भरा होता है। जैसे ही कोई व्यक्ति ठंड से गर्म परिवेश से में प्रवेश करता है तो उसकी त्वचा धीरे-धीरे तालमेल बिठाती है।

कई बार हम नए में घुलते जाते हैं, मगर पुराना समय भूलने पर भी स्मृतियों में ताजगी बनाए रखता है। शहर में पढ़ने वाले विद्यार्थी अक्सर किराए को लेकर रिक्शा चालक से भिड़ जाते थे और रिक्शाचालक भी विद्यार्थियों की विवशता समझ लेता था। अब मशीन के पास वह संवेदना नहीं है। वह मिठास अब इलेक्ट्रिक और स्वचालित टिकटों वाले वाहनों में नहीं है। हम सभी सुबह से शाम उसी बस या निजी टैक्सियों में सफर कर रहे हैं।

भागदौड़ भरी जिंदगी में जमीन से जुड़ा व्यक्ति अपनी गरीबी और निर्धनता को धीरे-धीरे कम करने के लिए कठोर परिश्रम करता है, धीरज बनाए रखता है। वे लोग अब नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें आज भी बहुत कुछ सिखाती हैं। उनमें कठिन परिश्रम करने की अपार क्षमता है। फर्क यह है कि वे अपने गुजारे के लिए अपनी जान लगा कर मेहनत करते हैं, फिर भी पर्याप्त भोजन तक के अभाव से दो-चार होते हैं।

वहीं विलासितापूर्ण जीवन जी रहे लोगों में कठिन परिश्रम का न होना कोई नई बात नहीं है। बल्कि शायद यही आदत उनके संसाधनों पर कब्जे का औजार भी रहा है। इसके बावजूद दुनिया में मेहनत की ही स्थापना होती है। और इस मामले में निम्न वर्ग का जीवन ही मेहनत है। जीवन में बताए गए रास्ते उतने कठिन नहीं लगते, जितने कि उस पर में चलने वालों की मानसिकता को समझना मुश्किल लगता है। सवाल है कि आसान रास्तों का चुनाव करने का विकल्प चुनने की सुविधा किसके पास है।

निजी क्षेत्रों की बढ़ता हुआ कुनबा सार्वजनिक क्षेत्रों में घुसपैठ कर रहा है। इंसानों के हिस्से का काम बड़ी-बड़ी मशीनें कर रही हैं और बड़ी-बड़ी मशीनों का काम अब नई आ रही मशीनें कुछ पल में कर रही हैं। इंसानों को काम न मिलना अब हमारे समाज और सत्ता के कर्ताधर्ताओं की चिंता का विषय नहीं रह गया है। कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आधुनिकीकरण और तकनीकी दुनिया में इंसान और उसकी संवेदनाओं के लिए कितनी जगह बच सकेगी।