स्वरांगी साने
जग झूठा, यह हमें पता है। तब भी हम उसे इतना सच्चा मान कर चलते हैं जैसे इससे सच्चा और कुछ भी नहीं। उसके बरक्स हमें बाकी सब झूठ लगता है। बड़े ताव से कहते हैं कि अरे भगवान को किसने देखा है या स्वर्ग-नर्क की बातें बकवास है या वसुधैव कुटुम्बकम् वगैरह कुछ नहीं होता। अपने तो अपने ही होते हैं और भी पता नहीं क्या-क्या! हमारे पास ‘जगत मिथ्या है’, इसे झूठलाने का कोई तर्क हो या न हो, लेकिन हमें पुरानी सारी किंवदंतियों को झुठलाने के हजारों-लाखों वैज्ञानिक कारण याद हैं। वैज्ञानिकता का विरोध कतई नहीं है। विज्ञान और उससे जुड़ी सारी बातें आज की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन ‘विज्ञान वरदान या अभिशाप’ जैसे निबंधों के लेखन की बचपन से चली आ रही तैयारी ने उसके भी पक्ष-विपक्ष को बखूबी सामने रखा है।

विज्ञान से भी परे है प्रज्ञान। अज्ञान, ज्ञान, विज्ञान और प्रज्ञान! इस ज्ञान यात्रा के चौथे और लक्षित पड़ाव तक ले जाने के लिए हमारी अज्ञान अवस्था में हमें किंवदंतियों से समझाया जाता था, क्योंकि तब हमारे पास ज्ञान का अभाव था और बहुत सारी बातें हमारी समझ से परे हो सकती थीं। हम ज्ञान के युग में पहुंचे, हम ज्ञानी होने के भाव में जीने लगे।

ज्ञान ने सबसे पहले हमें जाने कैसे, संवेदनहीन होना सिखा दिया। हमने हर पुरानी बात का विरोध करना शुरू किया, उसके लिए तर्क को कुल्हाड़ी की तरह इस्तेमाल किया। तर्क से कुतर्क भी किए और जब कोई हमें समझाने में विफल रहा तो हम उसकी कूपमंडूकता पर खुल कर बीच बाजार, सबके सामने खिल्ली उड़ाते हुए हंस पड़े। हम यह नहीं समझ सके कि अगर कोई आपके कुतर्कों पर हंस नहीं रहा तो हो सकता है उसे आपकी बुद्धिमानी पर दया आ रही हो और आप पर हंसना तक उसे उचित न लग रहा हो।

जब हमारे हाथ में ‘क्वांटम सिद्धांत’ या कोई और सूत्र-समीकरण या सिद्धांत लगता है, तब भी हमारी अवस्था अज्ञानी से कुछ भिन्न नहीं होती, क्योंकि हम अपनी यात्रा को यहां तक आकर रोक देते हैं। हमें लगता है, बस हमें वह ज्ञान मिल गया, जो हमें चाहिए था। हमारी वैज्ञानिक सोच विकसित होती है और सारी वस्तुओं-घटनाओं को हम नए परिप्रेक्ष्य, नए प्रकाश में देखने लगते हैं। हमें बोध होता है कि जिस ज्ञान की सीढ़ी से हम बड़े-बड़े तर्क-कुतर्क कर रहे थे, उससे तो यह पायदान बहुत ही अलग है।

यहां से सारी बातें अधिक साफ दिख रही हैं। खेत के जिस टुकड़े को लेकर हम झगड़ रहे थे, उसके बाद हमें समझ में आया कि खेत तो बहुत बड़ा है और मेहनतकश की तरह हमें इस दुनिया से अपना हिस्सा मांगते हुए ‘एक गांव नहीं, एक शहर नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे’ का नारा देना चाहिए। पर जब हम उससे भी ऊपर पहुंच जाते हैं तो हम चील की नजर रखने लगते हैं। हमें पता चलता है कि ‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है’। उस ऊंचाई से हमें वह एक चूहा एकदम साफ दिख जाता है जो हमारे ज्ञान के क्षेत्र (खेत) को कुरेदते जा रहा है। हम पूरी सटीकता से उसे दबोच पाते हैं। विज्ञान हमें वह ताकत देता है कि हम ऊंचे से ऊंचा और गहरे से गहरा जा सकते हैं। पहले सोचिए और फिर आंकिए।

ठीक तभी हम गाफिल हो जाते हैं, क्योंकि उस ऊंचाई से जो ऊंचा है, उससे भी ऊंचा कुछ और हो सकता है। उसकी कल्पना तक नहीं कर पाते। हमारी बौद्धिक क्षमता वहीं तक सीमित हो जाती है। उस गहराई से अधिक गहरे से भी अधिक गहरा कुछ हो सकता है, हम उसकी थाह नहीं ले पाते। असीम को समझने के लिए हम खुद को बहुत सीमित पाते हैं।

उससे आगे ले जाने के लिए वे सारी किंवदंतियां हैं जो हमें एक बोध, अपने बोध का ज्ञान कराती हैं। किसी पशु-पक्षी से लेकर आप और मैं तक, पंचतत्त्वों का एक मिश्रण भर हैं, जो एक खास रसायन में ढल कर इस रूप में आया और फिर पंचतत्त्वों में विलीन होकर नया रूप धर लेगा। इस विशेष संयोजन ने हमें जिस प्राणि-वर्ग में रखा, वहां हमें जो नाम मिला, हम बस उतने ही नहीं हैं।

प्रज्ञानी व्यक्ति इस स्तर पर जाकर सोचता है। उसे पता होता है कि सूर्य और वह, वह और आप, आप और मैं, कोई अलग नहीं हैं। हमने अपने आप को सीमित कर लिया है। अगर अपनी असीमित शक्ति का हमें बोध हो जाए तो जैसे बिना थके सूरज रोज निकलता है, वैसे ही आप और मैं भी रुक के आराम नहीं करेंगे, निरंतर काम करेंगे।

आप यात्रा के किस पड़ाव पर है, आंकिए और आगे बढ़िए। इसकी खासियत भी यह है कि देखा जाए तो कोई यात्रा है भी नहीं। इसलिए कोई लक्ष्य भी नहीं है। किसी उद्देश्य को पाने की लालसा तक न रहे, यह उद्देश्य होना चाहिए। उद्देश्य-विहीन उद्देश्य- यह इतना कठिन भी नहीं है।