आलोक रंजन

परीक्षाओं के इस मौसम में एक नया रुझान देखने को मिल रहा है। अध्यापक, माता-पिता, प्राचार्य और मीडिया के लोग परीक्षा भवन से बाहर आ रहे छात्रों की मुस्कान की चौड़ाई से, उनकी आंखों की लाली और उनमें बसे पानी की मात्रा से छात्र के प्रदर्शन को जांचने लगे हैं। अगर बच्चा हंस नहीं रहा है तो परीक्षा कठिन हुई होगी, आंखें लाल हैं तो भी वही हुआ होगा और बाहर आते ही रोने वाले छात्रों के बारे में तो कहना ही क्या! हाल के दिनों में जबसे छात्र परीक्षा परिणाम के डर से आत्महत्या करने लगे हैं, तब से परीक्षा के प्रश्नपत्र भी खबर की हैसियत रखने लगे हैं।

ये स्थितियां देख कर खुशी होती है कि अध्ययन-अध्यापन के जितने भी सहभागी हैं वे और मीडिया सब सचेत हो रहे हैं। वे कम से कम परीक्षा को तवज्जो जरूर देने लगे हैं। खुशी की बात यह भी है कि अब परीक्षा के दिनों में छात्र अकेला नहीं होता। शिक्षा के लिए यह एक खुशखबरी है। बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है, जब परीक्षा के दिन केवल छात्रों से संबंधित होते हैं। छात्रों को प्रवेश पत्र मिल गया, उन्होंने तैयारी कर ही ली होगी फिर वे अब पढ़ें और परीक्षा दें। माता-पिता या अभिभावक अखबार से परीक्षा की समय सारिणी काट कर देने और थोड़े से जेबखर्च देने को ही अपना सबसे मूल कर्तव्य मानते थे और उसका निर्वाह कर उन्हें गर्व भी होता था। उस लिहाज से आज की स्थिति वाकई खुश करने वाली है कि छात्र की भावनाओं को समझने के लिए उसके आसपास लोगों से लेकर संस्थान तक मौजूद रहने लगे हैं। लेकिन क्या यह सच में खुश होने का क्षण है?

एक अध्यापक के रूप में मुझे ग्यारहवीं में आने वाले छात्रों को पुराने तौर-तरीकों से निकालने में ही काफी समय लग जाता है। उन्हें यह विश्वास ही नहीं होता कि ग्यारहवीं में पहले पाठ के आधार पर साल के अंत में भी प्रश्न आएंगे। नीचे की कक्षाओं में उनकी जो आदत लगी है उस हिसाब से पहला फारमेटिव असेसमेंट यानी एफए होते ही ज्ञान का वह भाग उनके लिए निरर्थक हो जाता है। इसलिए वे उसे अपने जेहन से निकाल देने में नहीं हिचकते। मैं दसवीं को भी पढ़ाता हूं, तो वहां एफए एक का कोई संदर्भ अगर दूसरे एफए में आता है, तो कई बार छात्रों को मुंह ताकते देखा है। कुछ तो खुल के कह देते हैं कि अमुक संदर्भ बीते हुए एफए का था, इसलिए हमें नहीं पता।

अब थोड़ी-सी बात प्रश्नपत्रों पर। बाहर से आने वाले दसवीं तक के प्रश्नपत्र आवश्यक रूप से बड़े ही सरल होते हैं। उदाहरण के तौर पर अपठित गद्यांश के प्रश्न को लेते हैं। गद्यांश में बताया जाता है कि ‘महात्मा गांधी का जन्म पोरबंदर में हुआ था’। नीचे प्रश्न होता है- महात्मा गांधी का जन्म कहां हुआ था। भाषा साहित्य के व्याकरण के प्रश्न छठी से लेकर दसवीं तक लगभग एक समान होते हैं। लेकिन बारहवीं के प्रश्न अचानक से काफी गहरे पूछ लिए जाते हैं। जिन छात्रों को आदत लगी है आसान प्रश्न करने की वे थोड़े से घुमावदार प्रश्न देखते ही चिंतित होने लगते हैं। एक-दो घुमावदार प्रश्न उनके पूरे आत्मविश्वास को हिलाने के लिए काफी होते हैं। फिर वे परीक्षा भवन से रोते हुए आएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

ऊपर कही गई बातें कोई नई नहीं हैं। दसवीं से लेकर बारहवीं तक को पढ़ाने वाला कोई भी अध्यापक इस पर लंबी बात कर सकता है। हर वर्ष सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटी जाती है। शिक्षा के मामले में तो यह लकीर पीटने जैसी बात भी नहीं है। मीडिया के लिए कठिन प्रश्नपत्र एक सनसनी है, लेकिन पूरी प्रक्रिया कभी भी उसकी चिंता का विषय नहीं रही है। अध्यापक से ऊपर के लोग सब कुछ अध्यापकों पर छोड़ कर निश्चिंत हो जाते हैं। नीति बनाने वाले लोग विद्यालय का मुंह देखे बिना यहां वहां से लाई हुई बातें थोप कर अपने कर्मों की इतिश्री कर लेते हैं। माता-पिता भारत में कभी इतने जागरूक हुए ही नहीं कि वे शिक्षा की प्रक्रिया पर ध्यान दें। छात्र जहां तक संभव हो सके मेहनत करने से बचने की कोशिश करते हैं। ऐसे में गणित के कठिन प्रश्नों पर शोर मचा लेना और सीबीएसइ द्वारा जांच में ढिलाई बरतना खुश करने के बजाय एक खतरनाक स्थिति की ओर संकेत करती है, जहां हम छात्रों को तैयार करने के बजाय क्षणिक हल निकालने की कोशिश करते हैं।