सुरेश सेठ

कभी यह अभियान होता था अपने लिए इज्जत से रोटी-रोजी कमाने के वास्ते एक उचित नौकरी की तलाश। अचानक पता चला कि आज के जमाने में इसका क्या अर्थ, जब हथेलियों पर सरसों उग सकती है। संक्षिप्त रास्तों की सहायता से सांप-सीढ़ी का खेल खेला जा सकता है और कल के रंक आज के राजा बन सकते हैं।

इसीलिए मेहनतकश अभियान रद्द हो गए और तलाश शुरू हो गई किसी छतरी की। उन्होंने हमारे कंधे पर हाथ रख कर बताया कि वे भी एक छतरी हैं, मेरे ‘बड़े भाई’ हैं। अचानक एक और ‘बड़ा भाई’ पाकर हम अचकचा गए। हम तो आज तक अपने आप को निपट अकेला मानते रहे थे। उदासीन और निर्वासित, जिसे महामारी का टीका लगवाने के लिए भी बिना इज्जत और धक्के से काम करवा देने वाला कोई सहारा नहीं मिलता।

लेकिन चुनावी दिन क्या आए कि अचानक हमारा महत्त्व बढ़ गया। हमारे पददलित रह जाने की हमदर्दी प्रकट करने वाले इतने रहनुमा मिल गए कि इनमें से हमारा ‘बड़ा भाई’ कौन-सा है, इसी के सही चुनाव में कठिनाई होने लगी। अचानक पता चला कि हम तो इस राज्य की एक तिहाई आबादी हैं और हमें पटाने के लिए ‘बड़े भाइयों’ की कतार लग रही है।

आजकल एक नया रंग इन ‘भाइयों’ ने बदला है कि पहले पददलित कौन हैं और इनके कितने वर्ग हैं, इनकी भली-भांति पहचान की जाए। आज तक हर दस साल के बाद इतनी बार जनगणना हुई है, लेकिन इस बार इसकी प्रक्रिया भी पददलितों से हमदर्दी-सी बन गई। इनकी वर्ग गिनती होनी चाहिए, इसका फैसला हो रहा है। इसका कारण यह बताया गया है कि हमारा सर्वहितकारी कल्याणकारी राज्य है।

इसलिए पहले वर्गगत पहचान हो। बाद में उनके कायाकल्प के लिए विशेष प्रयास किए जाएं। अब यह कायाकल्प कैसे होगा? आजादी का अमृत महोत्सव मनाने की नौबत आ गई, लेकिन इसकी हमें खबर नहीं हुई। गरीब और किसानों का खुदा बन कर देश में पहली कृषि क्रांति हुई थी, लेकिन यह कुछ फसलों और कुछ राज्यों तक ही सीमित क्यों रह गई? पहली कृषि क्रांति को दम तोड़ते देखा, फिर पिछले चार दशक से दूसरी हरित क्रांति कर देने की योजना बन रही है।

लेकिन अब इस क्रांति को हुंकारा नहीं मिल रहा। पहली कृषि क्रांति की जन्मभूमि पंजाब थी। इसने मना कर दिया और पूर्वोत्तर राज्य भी इसे शुरू करने से पूर्व जम्हाई ले रहे हैं। योजनाबद्ध आर्थिक विकास का लक्ष्य था, प्रजातांत्रिक समाजवाद की स्थापना, लेकिन आज कोरोना लहर से दंडित राष्ट्र अपना वही परिचय दे रहा है कि चंद धनिकों ने देश के भाग्य को अपनी मुट्ठी में बंद कर रखा है। देश की अधिकांश जनता सही और बेहतर जीवन जीने का सपना देखने के अपराध में सपनों की दुनिया से बेदखल हो गई है।

लेकिन अब नई दुनिया का यह संकल्प पददलित विकास की भूमिका बांधने लगा। इसीलिए निर्णय लिया गया कि पहले उनकी वर्ग चेतना को उभार कर उनके चयनित विकास का संकल्प करो। अब इनकी जेबों को तलाश कर इनके फटीचर बखियों को सीने की वचनबद्धता जताओ। जनगणना से लेकर इनकी मतगणना का आधार बना दो और फिर भी वर्गवाद और जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद करते रहो।

एक चेहरा और एक मुखौटा। उनमें से निकलती हुई एक ही लोकप्रिय ध्वनि, जो सबको मकबूल है और वह ध्वनि है कि वंचितों का पेट भरा जाए, उनकी आंखों के सपने लौटा दिए जाएं। इसे कौन मना करता है, लेकिन इसके लिए जाति, धर्म और वर्ग की यह सीमा बांधने का प्रयास क्यों? भूख और अभावग्रस्तता की पीड़ा सब स्थान पर एक जैसी है, इसलिए इसे हरने का प्रयास आर्थिक आधार से पिछड़ा रह जाने की पहचान क्यों नहीं बनता? हवा में सवाल उछलते हैं, लेकिन उस पर चयनित विकास के घेरे बन गए।

एक सवाल और उठता है, इस वर्ग चेतना को दुलराने की प्राथमिकता क्यों? ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे का क्या होगा? क्या पीछे छूट गए लोग नारे से मिली दिलासा में ही जीते रहेंगे, और हाशिये के तबकों को गिन लेने की हड़बड़ाहट संतुलित विकास पर हावी होगी? ऐसे सवालों प्रतिक्रियावाद माना जाएगा! पहले उन वर्गों को गिन लिया जाए जो सदा से उपेक्षा और अन्याय की चक्की में पिसते रहे। इसके लिए आर्थिक चेतना नहीं, वर्गीय गणना का आधार बेहतर है। इस तरह विकास के अलग-अलग गट्ठर बांध कर चलेंगे तो वोटों की राजनीति में इन्हें अपनाकर या इनका मोल लगाकर अपनी कुर्सी बचाने का चोर दरवाजा मुख्य द्वार बन सकेगा।

इसलिए अपने इलाके में इसे अपनाने की होड़ लगी है। लेकिन इन लोगों ने तो वक्ती आधार पर मुख्यमंत्री पद ही इसके हवाले कर दिया। इसे राजनीति में तुरुप का पत्ता चलना कह देते हैं। लेकिन पूरे देश की भूख, बेकारी और बीमारी क्या राजनीति को ताश का खेल बना कर हल हो जायेगी। भूख बांटने की यह राजनीति कब तक चलेगी? इसके सामूहिक समाधान का प्रयास कब होगा?