सतीश खनगवाल
कुछ दिनों पहले पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर समय काटने के लिए एक पुस्तक विक्रेता की छोटी-सी दुकान पर विलम गया। हिंदी के कुछ उपन्यासों और कहानी संग्रहों को उलट-पलट कर देख ही रहा था कि ध्यान करीने से सजे कुछ कामिक्स की ओर गया। हाथ बरबस ही उस ओर खिंचे चले गए। एक कामिक्स हाथ में उठाते ही मैं अपनी किशोरावस्था में लौट गया।
अस्सी-नब्बे के दशक में जब बुद्धू बक्सा हमारे घरों में अपनी पैठ बना ही रहा था। लैंडलाइन फोन मध्यवर्ग की पहुंच में बस आया ही था। कंप्यूटर का नाम यदा-कदा सुनने को मिलता था, पर इंटरनेट, मोबाइल, आदि की तो किसी ने संभवत: कल्पना भी नहीं की होगी। तब मनोरंजन के नाम पर बच्चों के पास शारीरिक और घर में बैठ कर खेलने वाले खेलों के अलावा मात्र कामिक्स का सहारा था। जब पच्चीस और पचास पैसे के नाममात्र किराए पर एक दिन के लिए एक कामिक्स पढ़ने को मिलती थी।
उस दौर में बचपन से युवावस्था की यात्रा करने वाले लोगों के सिर पर कामिक्स का जादू सिर चढ़ कर बोलता था। उस समय का शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसे कंप्यूटर से तेज दिमाग वाले चाचा चौधरी, अपनी शरारतों से पूरे मोहल्ले के नाक में दम करने वाले बिल्लू और पिंकी याद न हों। मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले रमन और श्रीमती जी को भला कौन भूला सकता है। चाचा चौधरी के ताकतवर साथी साबू का गुस्सा किसे याद नहीं होगा। इन पात्रों के बारे में सोचते हैं, तो आज भी हमारे चेहरे मुस्कुरा उठते हैं।
नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, परमाणु, प्रेत अंकल, फाइटर टोड्स, गमराज, जंबू, अंगारा तौसी, विध्वंस, हवलदार बहादुर, क्रूकबांड, राम-रहीम, फौलादी सिंह, आदि पात्र किशोरों की पहली पसंद थे, जिनकी चित्रकथाओं को पढ़ कर डर, रहस्य और रोमांच से रोंगटे खड़े हो जाते थे। पेट में जितने बल आजकल के कामेडी शो देखते हुए नहीं पड़ते, उससे अधिक कामिक्स पढ़ कर हंसते-हंसते पड़ जाते थे। लोट-पोट के मोटू-पतलू तो आज भी कार्टून रूप में टीवी पर प्रसारित होकर बच्चों पर धाक जमा रहे हैं।
कामिक्स केवल बच्चों या किशारों की पसंद नहीं था, बड़े लोग भी समय काटने के लिए इन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे। कामिक्स के साथ-साथ कई बाल पत्रिकाएं बच्चों में काफी लोकप्रिय थीं और माता-पिता भी खुशी-खुशी उन्हें खरीद कर अपने बच्चों को देते थे। कामिक्स केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि वे बच्चों की कल्पनाशीलता को एक नई उड़ान देते थे। उनमें वर्णित चित्रकथाओं के माध्यम से बहुत आसानी से बच्चों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का ज्ञान हो जाता था।
आतंकवाद क्या होता है, भ्रष्टाचार किस प्रकार हमारे लिए परेशानी बनता है, नशे से क्यों दूर रहना चाहिए, सांप्रदायिकता क्यों हमारे लिए घातक है, आदि के बारे में बच्चे बहुत ही सरलता से जान जाते थे। उनमें देशप्रेम के साथ-साथ नैतिक और चारित्रिक गुणों का विकास सहज तरीके से होता था। कामिक्स के पात्र बच्चों के लिए आदर्श होते थे और वे उनकी तरह निडर और निर्भीक बनना चाहते थे।
अमर चित्रकथाएं शृंखला पढ़ कर तो बच्चों में धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक ज्ञान विकसित होता था। वहीं देश की सभ्यता और संस्कृति के साथ उनका जुड़ाव और अधिक गहरा हो जाता था। कामिक्स बच्चों में सहजीविता का गुण भी विकसित करती थी, क्योंकि अधिक किराए से बचने के लिए गली-मोहल्ले के बच्चे आपस में पैसे मिला कर कामिक्स ले आते और फिर एक जगह बैठ कर पढ़ते।
इसके बाद तकनीक की ऐसी आंधी आई कि टीवी पर चौबीसों घंटे कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। रेडियो पर एफएम चैनलों की धूम मच गई। विडियो गेम बच्चों की पसंद बन गए। कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल की घुसपैठ ने हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया। जीवन जहां बहुत सरल हुआ, वहीं बहुत-सी चीजें जीवन में बहुत पीछे छूट गर्इं। कामिक्स भी उनमें से एक है।
आज की पीढ़ी शायद अंदाजा भी नहीं लगा सकती कि एक समय कामिक्स बच्चों के मनोरंजन और ज्ञान का खजाना हुुआ करते थे। आज की पीढ़ी इंटरनेट गेम और सोशल साइटों पर रील बनाने के लिए जितनी पागल है, हमारी पीढ़ी कामिक्स के पीछे शायद उससे भी अधिक पागल थी। हमारी पीढ़ी में पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की ललक शायद इसीलिए बची है कि हम कामिक्स के दौर में बड़े हुए हैं, और हमारे पढ़ने के शौक में कामिक्स का बहुत बड़ा हाथ है।
हालांकि आज कामिक्स भी डिजिटल रूप में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। बच्चे शायद उन्हें पढ़ते भी हों, फिर भी चोरी-चुपके किताबों के अंदर कामिक्स रख कर पढ़ने में जो मजा हमारी पीढ़ी को आता था, आज कंप्यूटर और मोबाइल पर कामिक्स पढ़ने में वह मजा बिल्कुल नहीं आएगा। आज जब कंप्यूटर-मोबाइल पर लगे बच्चों की जिद और एकाकीपन को देखता हंू तो कामिक्स का वह दौर याद आता है, जो बच्चों को आपस में जोड़े रखता था।