एक अध्ययन में बताया गया है कि महिलाओं में बीमारी से लड़ने की ताकत पुरुष के मुकाबले ज्यादा होती है। द न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के शरीर में आंतरिक सुरक्षा का स्तर ऊंचा होता है। यह अध्ययन इजरायल में चिकित्सा क्षेत्र में कार्यरत कोरोना वायरस के विरुद्ध डट कर मुकाबला करने वाली महिलाओं पर किया गया था। टीके लगवा चुकी ऐसी महिलाओं की प्रतिरोधक क्षमता, टीके लगवा चुके पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मिली।
यह अध्ययन अगर भारतीय महिलाओं पर किया जाता, तो मेरे विचार से निश्चित ही विस्मयकारी परिणाम सामने आते, क्योंकि बिना किसी औपचारिक अध्ययन के ही हम यहां की अधिकांश महिलाओं की मानसिक और शारीरिक बीमारी से लड़ने की अविश्वसनीय ताकत से परिचित हैं। उन्हें घर-परिवार की जितनी चिंता रहती है उतनी शायद ही पुरुषों को रहती होगी। वे बीमार होकर भी जल्दी से अपना इलाज नहीं करवातीं, जबकि घर में किसी अन्य सदस्य के बीमार होने पर चिंतित हो जाती हैं। उनकी मानसिक चिंताओं की तो कोई सीमा ही नहीं। इसके बरक्स, उनकी बीमारी की चिंता घर के दूसरे सदस्य क्या, उनके पति भी नहीं करते।
पुरुष सत्तात्मक समाज उसे भले पूजनीय कहता रहा हो, पर वास्तविकता यह है कि महिला सशक्तिकरण के इस समय में भी अधिकांश पुरुष मन से उसे अपने समकक्ष मानने को तैयार नहीं हैं। पुरुष स्वयं चाहे अवगुणों की खान हो, पर महिला से सर्वगुण संपन्न होने की अपेक्षा करता है। वह चाहता है कि महिला में पृथ्वी-सी सहनशीलता, समुद्र-सी गंभीरता, चंद्रमा-सी शीतलता और पर्वत-सी मानसिक उच्चता हो। इन सबके बावजूद वह उसकी उपेक्षा करता है।
अधिकांश महिलाएं पुरुष के अहं से आहत हैं और चुपचाप सहती रही हैं। उन्हें यही सिखाया जाता है कि पति परमेश्वर होता है। वह जैसा भी है, उसके साथ खुशी-खुशी रहना है। पति और उनके परिवार के आदेश की पालना करना तुम्हारा धर्म है। जो भी कष्ट हों, उन्हें हंसते हुए सहना। घर की बात बाहर मत करना। उस घर की इज्जत तुम्हारी इज्जत है। अब इस घर से तुम्हारा ‘पांती’ का नहीं, सिर्फ ‘हांती’ का रिश्ता है। पांती यानी जमीन-जायदाद में कोई हिस्सेदारी नहीं है, किंतु ‘हांती’ के समय तुम्हें याद रखेंगे। विवाह आदि विशेष अवसरों पर तुम्हें सप्रेम आमंत्रित किया जाएगा और यहां बनी मिठाइयों-पकवानों में से कुछ अंश तुम्हें हांती के रूप में दिया जाएगा।
महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए चाहे कितने ही कानून बन गए हों, लेकिन वह इन ‘कुसंस्कारों’ से मुक्त नहीं हो पाई है। वह आज भी स्वयं को पुरुष के समकक्ष नहीं, वरन उसके अधीन मानती रही है। बचपन से घर किए ऐसे कुसंस्कार महिला को मानसिक रूप से इतना दुर्बल बना देते हैं कि शिक्षित और कामकाजी होकर भी वह अपने पति और उसके परिवार की प्रताड़ना और अत्याचार अबोली सहती रहती है। पिछले दिनों हमारे पुराने परिचित की बेटी घर मिलने आई। वह एमए, बीएड है और सरकारी विद्यालय में अध्यापिका है। उसका पति कोई छोटा-मोटा काम करता है। उसकी दो संतानें हैं। काफी दिनों बाद पत्नी का उससे मिलना हुआ था, इसलिए उसने परिवार के हाल-चाल पूछे। जैसा कि आम जवाब होता है, उसने कहा, ‘सब ठीक है’। लेकिन इन तीन शब्दों के अंदर की व्यथा पत्नी से छिपी नहीं रह सकी।
उसने मुझे अपने कमरे में जाने का इशारा किया। मैं वहां से चला गया तब वह पत्नी के सामने खुली। बताया कि उसका पति उसकी जब-तब पिटाई करता रहता है और वह चुपचाप सहती रहती है। पत्नी ने पिटाई का कारण पूछा, तो बोली कि उन्हें तो बस बहाना चाहिए पीटने का। पत्नी ने कहा कि घर में तुम्हारी सास रहती है, उससे क्यों नहीं कहती? वह बोली कि वह तो अपने बेटे को गलत ही नहीं मानती। कहती है कि क्या हुआ, जो दो-चार लात-घूंसे मार दिए। मर्द अपनी औरत को नहीं पीटेगा, तो क्या दूसरों की औरत को पीटेगा। मेरा बेटा तो फिर भी सीधा है।
गुस्सा आने पर हाथ-पैर ही चलाता है। तेरे ससुर तो मुझे लाठियों से मारा करते थे, पर मैंने कभी चूं नहीं की। सुना तो मैं व्यथित-विचलित हो गया। पर थोड़ी देर बाद ही उसकी निष्कलुष हंसी कानों तक पहुंची तो मुझे विस्मय हुआ कि पुरुष की प्रताड़ना सह कर भी औरत इतनी सहज कैसे रह लेती है? लगा कि पुरुष की ज्यादती को अधिकांश औरतें ज्यादती मानती ही नहीं। उसे जीवन का जरूरी हिस्सा मान कर सहजता से स्वीकार कर लेती हैं।यह सच है कि महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, पर यह भी सच है कि वे घर में पुरुषों के अहं के सामने अपने व्यक्तित्व को बहुत कम अहमियत देती हैं। महिलाएं जब तक ऐसे कुसंस्कारों में जकड़ी रह कर पुरुष की गलतियों, उसकी ज्यादतियों, प्रताड़नाओं को पूरी ‘श्रद्धा’ से सहती रहेंगी, तब तक वे बराबर की कमाऊ, कामकाजी होकर भी आंतरिक रूप से दुर्बल बनी रहेंगी।