अरुणा कपूर

आजकल पुराने जमाने की किसी बात को याद करें तो इसके दो असर दिखते हैं। एक तो तुलनात्मक रूप से हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि पहले के मुकाबले आज कोई खास चीज या चलन किस स्तर पर है। दूसरे, कुछ लोग पुराने जमाने की बातों को याद करने को पुरातनपंथी विचारों में डूबे रहने की तरह देखने लगते हैं। लेकिन इन सबसे इतर किसी संदर्भ का वस्तुपरक विश्लेषण की जरूरत हमेशा होती है। हमारे बचपन के दिन थे, जब हम पुणे में बुधवार पेठ स्थित एक पुरानी हवेली जैसे बने दगड़ीवाड़ा में रहते थे। काले रंग का पत्थर से बना वह वाड़ा मजबूती की मिसाल था। हमारे परिवार में बुजुर्गों से लेकर मौजूदा पीढ़ियों तक के कई सदस्यों का जन्मस्थान वह विशाल वाड़ा था। संयोग से हमारा भी।

इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह वाड़ा कितना पुराना था। उसे नगरकर वाड़ा भी कहा जाता था। वहां हमारे अलावा भी बहुत से परिवार रहते थे। दो-तीन वर्षों के अंतराल में जरूरत के मुताबिक पेंट करवा लिया… काम खत्म। दो या चार बड़े कमरों का सेट हुआ करता था। बीच में एक बड़ा चौक था और चौतरफा चार मंजिली इमारत थी। एकदम पक्की दीवारें, खिड़कियां, पत्थर ही की सीढ़ियां। न कहीं टूट-फूट, न कहीं पानी का रिसाव। छज्जा टूटना या छत से पानी टपकने की बात कभी किसी से सुनी नहीं थी। बीच में बने बड़े चौक में साइकिलें खड़ी की जाती थीं। सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता था।

इस वाड़े को नई पीढ़ी की भाषा में ‘रेसिडेंशियल सोसायटी’ ही कहा जाएगा। लेकिन वाड़ा और ‘रेसिडेंशियल सोसायटी’ के प्रति दृष्टि और धारणा में एक बड़ा फर्क होगा। खासतौर पर उस पीढ़ी में, जो हर पुराने को पीछे छोड़ने से लेकर दरकिनार करने तक की वकालत करती है। लेकिन उसी पुरानी आबोहवा में आपस में मिलना-जुलना और पास-पड़ोसी के सुख-दुख में समय पर पहुंच कर उनकी जिस तरह से भी हो सके, सहायता करना सभी निवासी अपना कर्तव्य समझते थे। उस समय के हिसाब से वहां जरूरी सभी सुविधाएं उपलब्ध थी। आज सुविधाओं के बीच वह आपस की संवेदना क्या हम कहीं खोज पाते हैं?

बहरहाल, आज की नई रिहाइशी इमारतों या सोसाइटियों के बारे में कहना ही क्या! मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई। सभी बड़े और छोटे शहरों में रिहाइशी सोसाइटियां बनी हुई हैं। सुविधाएं यहां अनगिनत उपलब्ध हैं, लेकिन सोसाइटियों की हालत उनके बनने के बीस-पच्चीस वर्षों में ही नाजुक होती देखी गई है। ऐसा क्यों है? क्या निर्माण के दरमियान बनने वाली इमारत की मजबूती की तरफ ध्यान देना जरूरी नहीं समझा जाता है? बारिश के मौसम में छतों से पानी का रिसाव, दरवाजों और खिड़कियों में घटिया सामग्रियों का इस्तेमाल किए जाने की वजह से फूलना और टेढ़ा-मेढ़ा हो जाना आम बात है।

कई सोसायटियों में तो निर्माण इतना घटिया स्तर का देखा गया है कि छतें और बालकनियां भी गिर जाती हैं। क्या यह वहां रहने वालों के लिए जानलेवा आफत के समान नहीं है? सोसाइटियों में रहने वाले सदस्यों से रखरखाव और देखरेख के लिए तयशुदा रकम ली जाती है। लेकिन न तो सफाई का ध्यान रखा जाता है, न आवश्यक सुविधाओं का। जहां लिफ्ट लगी हुई होती है, ऐसी सोसाइटी वाले निवासियों की परेशानी लिफ्ट खराब होने पर कितनी बढ़ जाती है, यह तो वही जानते हैं।

साफ-सफाई को लेकर प्रबंधन के भीतर कोई रुचि नहीं देखी जाती। ऐसा लगता है कि अगर सफाई हो रही है तो अतिरिक्त मेहरबानी की जा रही है। जगह-जगह टूटी फूटी चीज-वस्तुओं का ढेर और गंदगी की वजह से मख्खी-मच्छरों का उपद्रव बढ़ जाता है और कोलेरा, डेंगू और टाइफाइड जैसी बीमारियां फैलती है। यह घातक है। कई सोसाइटियों में वाहनों की पार्किंग का भी ध्यान नहीं रखा जाता है और बेतरतीब तरीके से गाड़ियां लगी रहती हैं। जगह को लेकर निवासी परेशान रहते हैं और आपस में झगड़े और मनमुटाव भी इसी कारण से होते रहते हैं।

इस तरफ ध्यान देने का कर्तव्य हम सभी का है। स्वच्छता पर ध्यान देना बीमारियों से बचने के लिए अति आवश्यक है। घर हो, दफ्तर, व्यावसायिक परिसर या सोसायटी हो। सभी जगहें हमारी अपनी हैं। हमारे ही विचरण के लिए है। प्रबंधन के सदस्य भी हमारे ही चुने हुए और हमारे बीच रहने वाले व्यक्ति ही होते हैं। उनके साथ संपर्क बनाए रखना और उनके कार्य में रुचि लेकर अपना योगदान देना एक नागरिक की हैसियत से हमारा कर्तव्य है।

हमारे अच्छे आचरण से लाभ आखिर हमारे ही हिस्से में आएगा, यह भूलना नहीं चाहिए।इन व्यवस्थागत समस्याओं के अलावा सबसे अहम पहलू यह है कि अब सामाजिक मेल मिलाप, मिलना-जुलना सोसाइटियों में कम होता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण टीवी कार्यक्रमों और स्मार्टफोन में लोगों की व्यस्तता तो है ही, अनेक निराधार भय की वजह से भी लोग अपने आप में सिमटने की मानसिकता से घिर चुके हैं। कुछ एक सोसाइटियों को छोड़ कर यही स्थिति सभी जगह देखने को मिलता है। सवाल है कि व्यवस्था से लेकर मानवीय संवेदना से रहित जीवन किस तरह के समाज और संसार की रचना करेगा!